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________________ दुनिया किन्तु अपनी जीवन-साधना के द्वारा जीवित रखा। उन्हीं की बड़ा फर्क, इस नयी मिशनप्रवृत्ति में दाखिल होने प्रेरणासे, व्यापक मानव-सेवा करने का संकल्प जागा है, उसके की सब संस्कृतियों को लाभ ही होगा। साथ उनका नाम होना ही चाहिये, यह मेरा आग्रह है। श्री शान्तिभाई की यह योजना अच्छी लगी, इस वास्ते देश में जगह-जगह पर 'भगवान महावीर की २५सौवीं उसे 'मंगल प्रभात' में अन्यत्र दे रहे हैं। निर्वाण शताब्दी' मनाने की योजनाएँ बन रही हैं। उनका विश्वशांति या विश्वमैत्री की स्थापना के लिये सर्व धर्मकाम केवल दो-तीन या पाँच-दस वर्ष चला तो उतने से समन्वय की प्रेरणा जिनको मान्य है उनका अब काम है कि महावीर के प्रति हमने अपनी कृतज्ञता पूर्णरूप से व्यक्त की, वे सोचें 'महावीर मिशन' को किस तरह चलाया जाये? और ऐसा मानने का हमें अधिकार नहीं है। इसका आगे का विचार करने के लिये धर्म-भेद को बाज पर ईसाई आदि धर्म के मिशनरी लोग केवल अपने ही धर्म रखकर सबों को एकत्र लाने के लिये आमंत्रण दें। नवयुग का को विश्व का धर्म बनाने के उद्देश्य से अपना-अपना मिशन यह कार्य है। नये-नये लोग इसे उठावें । हम तो इसे आशीर्वाद चला रहे हैं। 'अपना धर्म छोडो, और हमारे धर्म में आ जाओ' देकर ही संतोष मानेगे । आशीर्वाद के साथ यथाशक्ति थोडीऐसी धर्मान्तर कराने की महत्त्वाकांक्षा उन मिशनों में है। बहुत सेवा करने की बात आ ही जाती है। लेकिन यह काम अनेकांतवादी महावीर सब धर्मों को अभयदान देकर है तो नवयुग का ही। उनको विश्वशांति और विश्वमैत्री' का बोध दे रहे हैं। इतना (मंगलप्रभात में १ अक्टूबर १९७३, में प्रकाशित लेख) , श्री शान्तिभाई ब्यावर से 'जैन शिक्षण संदेश' नामक मासिक पत्रिका का संपादन करते थे। उसके बाल-विशेषांक में विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने एवं राष्ट्रपति राजेन्द्र बाबू ने बालोपयोगी शिक्षण-संदेश भेजे थे वे दोनों ऐतिहासिक पत्रों को उन्हीं के हस्ताक्षरों में प्रकाशित कर रहे हैं। ये दोनों पत्रों के ब्लाक हमें आदरणीय बंधु श्री गुलाबचंदजी जैन के सौजन्य से प्राप्त हए हैं। -सम्पादक We fulfil our solen । यस विम्य angūnust angě neust responsibility to man slon ke give oin broknा मारी का । 56 राष्ट्र love to children. मन्त बर्ग Rabindr whath Tagen लि einfall at ____/4/36 मोती और रिलिी "शिक्षा आरा १M794 माटा: । (17 Arचिन्ताकल्प 2736722 डी की। सहार अनुवाद हम बच्चों को अपना सर्वोपरि प्रेम देकर ही मानव-समाज के प्रति अपना उत्तरदायित्व पूरा कर सकते हैं। -रवीन्द्रनाथ टैगोर ता०१-४-३६ २४- 3-4 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012073
Book TitleShantilal Vanmali Sheth Amrut Mahotsav Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherSohanlal Jain Vidya Prasarak Samiti
Publication Year
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size22 MB
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