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________________ समन्वयदर्शी शान्तिभाई हार्दिक स्वागत आचार्य काकासाहेब कालेलकर ईसाई-मिशनरियों ने सैकड़ों वर्ष हुए हमारे देश में इतने बड़े फर्क का कारण ढुंढना चाहिये। भारत के और दुनिया के अन्य-अन्य देशों में, जो सेवा-कार्य किया है जातिधर्म का यह असर तो नहीं है ? और धर्म-प्रचार किया है, उस पर से बोध लेने वाला एक मुझे ख्याल ही नहीं था कि हमारे शान्तिभाई के हृदय में लेख जब मैंने 'मंगल प्रभात' के पिछले अंक में लिखा तब मुझे 'महावीर मिशन' की स्थापना करने की प्रचंड प्रेरणा पैदा ख्याल नहीं था कि उसे पढ़कर हमारे शान्ति भाई के हृदय में होगी। अपने ढंग का एक 'मिशन' स्थापित करने की प्रेरणा उगेगी। समन्वयदर्शी शान्तिभाई ने हमारे यहाँ आकर सब धर्म मैं जैन स्नेहियों से कभी-कभी पूछता हूँ कि बौद्धधर्म समन्वय का काम अपने हाथ में ले लिया उसके पहले उन्होंने ने लंका, ब्रह्मदेश, तिब्बत, चीन, जापान आदि अनेक देशों में जैन-धर्म की और जैन-समाज की काफी सेवा की है। वे बड़े जैसा धर्मप्रचार किया वैसा जैनियों ने क्यों नहीं किया? जैन- उत्साही जैन हैं। धर्म और बौद्ध-धर्म हमारे सनातनी हिंदु धर्म में सुधार कर अपनी इस योजना के अंत में लिखते हैं कि-'महावीर' का सके। दोनों की सेवा अद्भुत है। लेकिन बौद्धधर्म के प्रचारक नाम इस मिशन के साथ जोड देने का उनका आग्रह नहीं है। सैकड़ों वर्ष हुए अपने धर्म को विशाल जगत में फैला सके। उनके हृदय की व्यापकता और उदारता का ही यह नमूना है। और जैन समाज ने अपने उत्तमोत्तम साधुओं को भारत से लेकिन मैं तो कहँगा कि अत्यंत व्यापक भावना की बाहर जाने से भी मना किया। 'भारत-बाहर शुद्ध आहार 'अहिंसा' और 'सब धर्मों में कौटुंबिक भाव पैदा करने की प्रेरणा मिलने की कठिनाई है तब ये जैन साधु भारत-बाहर जावें ही देने वाला 'अनेकान्तवाद' जिन्होंने ढाई हजार वर्ष पहले मानवक्यों? जायेंगे तो उनका बहिष्कार किया जायेगा।' ऐसा जाति को दिया उन महावीर के प्रति हमारे मनमें अगर उनको डर बताया ! बौद्ध और जैन दोनों धर्म भारतीय हैं। थोड़ी भी कृतज्ञता और आदर है तो उनका नाम इस 'मिशन' दोनों ने बहुत बड़ा सुधार का काम किया है। तब दोनों के के साथ होना ही चाहिये । किसने कहा कि भगवान महावीर इतिहास में इतना फर्क क्यों? बौद्धधर्म को हमारे हिंदु धर्म ने केवल जैनियों के ही हैं ? 'मानव-जीवन को विशुद्ध और हज़म कर डाला। फलत: भारत में बौद्ध धर्म का अस्तित्व भी विशाल बनाने के लिये' वे इस दुनिया में आये। उनके नहीं के जैसा हो गया। इधर जैनधर्म मानो एक जाति बनकर साथियों ने और शिष्यों ने यथामति, यथाशक्ति जैन धर्म की भारत की सीमा के अंदर ही पनप कर संतोष मान रहा है। प्रगति की और भगवान के बोध को केवल ग्रंथों के द्वारा नहीं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012073
Book TitleShantilal Vanmali Sheth Amrut Mahotsav Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherSohanlal Jain Vidya Prasarak Samiti
Publication Year
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size22 MB
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