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________________ आगम संबंधी लेख साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ प्रीति क्रिया -गर्भधारण के तीसरे माह में जिनेन्द्र भगवान की पूजा करना दरवाजे पर तोरण बांधना एवं दो पूर्ण कलश स्थापन करना चाहिए। तथा उस दिन से प्रतिदिन उसकी शक्ति अनुसार घण्टा और नगाड़े बजवाना चाहिए । यह प्रीति क्रिया है। सुप्रीति क्रिया - पाँचवे माह में पूर्व की तरह अर्हन्त भगवान की पूजा करना चाहिए। घृति क्रिया - गर्भ से सातवें माह में पूर्ववत भगवान की प्रतिमा की पूजा करना चाहिए। मोद क्रिया - नवमें माह के निकटपूर्व की तरह पूजन आदि करके गर्भ की पुष्टि के लिए गर्भिणी के शरीर पर गात्रिका बंध अर्थात् बीजाक्षर मंत्र पूर्वक लिखना चाहिए।रक्षा के लिए करूणासूत्र बांधना, मंगलमय आभूषण पहनना चाहिए। प्रियोद्भव क्रिया - इसको जात कर्म क्रिया भी कहते हैं जिनेन्द्र भगवान का स्मरण कर विधिपूर्वक करना चाहिये यह प्रियोद्भव क्रिया है। नामकर्म क्रिया - जन्म के बारह दिन बाद जो दिन माता - पिता पुत्र को अनुकूल हो उस दिन नाम कर्म की क्रिया की जानी चाहिए। अपने वैभव के अनुसार अर्हत भगवान की पूजा आचार्य एवं उपाध्याय साधु परमेष्ठी की पूजा आराधना करके जो कुल परम्परा को बढ़ाने वाला हो ऐसा नाम बालक का रखना चाहिए । अथवा भगवान के एक हजार नामों के समूह से घटपत्र की विधि से कोई एक शुभ नाम ग्रहण करना चाहिए। बहिर्यान क्रिया - जन्म के दो - तीन या तीन - चार माह के बाद किसी शुभ दिन बाजों के साथ माता अथवा निकटतम परिवार की सधवा महिला बालक को गोद में लेकर प्रसूति स्थान से घर के बाहर ले जावे इस क्रिया के समय परिवार वालों को बालक को पारितोषक भेंट रूप में देना चाहिए। निषद्या क्रिया - इस क्रिया में सिद्ध भगवान की पूजा करना एवं मंगलप्रद रखे हुए बालक से योग्य विधायें हुए आसन पर बालक को बिठाना चाहिए। ऐसी भावना भानी चाहिए कि बालक को उत्तरोत्तर दिव्य आसन पर बैठने की योग्यता होती रहे। अन्य प्राशन क्रिया - जन्म से जब सात आठ माह हो जाये तब अहंत भगवान की पूजा करके बालक को अन्न खिलाना चाहिए। व्युष्ठि क्रिया - एक वर्ष पूर्ण होने पर पूजन आदि करके दान देना चाहिए इष्ट बंधुओं को भोजन कराना चाहिए । इसको वर्ष वर्धन क्रिया भी कहते हैं। केशवाप क्रिया - शुभ दिन शुभ मुहूर्त में देव और गुरु की पूजा करके वालों को गंदोदक से गीला करके पूजा के बचे हुए शेषाक्षत सिर पर रखे और फिर अपनी कुल पद्धति अनुसार मुण्डन करायें। इसको चौल क्रिया भी कहते है। लिपि संख्यान क्रिया - पाँचवे वर्ष में बालक को अपने वैभव के अनुसार पूजा आदि करके अध्ययन कराने में कुशल वृति ग्रहस्थ को अध्यापक के पद पर नियुक्त करना चाहिए। 638 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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