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________________ आगम संबंधी लेख साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ कि हम गर्भ से भगवान की सेवा करते आये, जन्म के समय उत्सव मनाया, सब जगह हमारी मुख्यता रहती है। तो पालकी हम ही उठा सकते हैं । मनुष्य कहते हैं नहीं यह हमारे घर के हैं, हमें छोड़कर जा रहे हैं तो हमारा ही अधिकार है कि हम इन्हें अपने कंधो पर पालकी में रखकर ले जावें दोनों के वार्तालाप को सुनकर निर्णायकों ने निर्णय किया कि भगवान की पालकी वे उठायेंगे, जो भगवान के साथ साथ भगवान जैसा हो सकेंगे। तब इन्द्र माथा झुकाता है , मनुष्यों से भिक्षा मांगता है कि हे मनुष्यों ! हमारे समस्त इन्द्र लोक का वैभव ले लो, पर मुझे पालकी उठाने का अवसर दे दो। उपुर्यक्त कथन से संयम का अर्थ स्पष्ट हो गया। अब संयम के भेदों पर विचार करते हैं : संयम के दो भेद हैं (1) द्रव्य संयम (2) भाव संयम | चरणानुयोग के अनुसार निर्ग्रन्थ मुद्रा धारण कर महाव्रतादि का पालन करना द्रव्य संयम है । संयमघाती प्रत्याख्यानावरण कषाय का क्षयोपशम होने पर आत्मा में जो विरक्ति के भाव उत्पन्न होते हैं उन्हें भाव संयम कहते हैं। ये दोनों संयम परस्पर सापेक्ष हैं । द्रव्य संयम के बिना भाव संयम नहीं हो सकता है तो भाव संयम के बिना, द्रव्य संयम भी कार्यकारी नहीं होता अर्थात् मात्र द्रव्य संयम से मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती है। संयम के और भी दो भेद बताये है : (1) उपेक्षा संयम (2) अपहृत संयम। निर्दोष रीति से तीनों गुप्तियों का पालन करने वाले, शरीर की क्षमता से रहित, तीव्र उपसर्ग के आने पर भी आत्मज्ञान से चलायमान न होने वाले उत्तम संहनन के धारी, वीतरागी साधुजन उपेक्षा संयम के पात्र होते हैं। अपहृत संयम भी दो प्रकार का है (1) प्राणी संयम (2) इन्द्रिय संयम । प्राणीसंयम के तीन प्रकार हैं(1) उत्तम (2) मध्यम (3) जघन्य । 1. जब साधुजन आहार के लिए, शौच के लिए, या ग्रामान्तर बिहार के लिए गमन करते हैं तब यदि भूमि पर त्रसस्थावर जीवों का बाहुल्य होता है तो वे उस मार्ग को छोड़कर अन्य प्रासुक मार्ग से गमन करते हैं इसे उत्तम प्राणी संयम कहते हैं। 2. त्रस आदि जीवों को पिच्छिका से दूरकर गमन करना मध्यम प्राणी संयम है। 3. पिच्छिका के अतिरिक्त किसी मृदु या कठोर उपकरण से मार्ग में स्थित जीवों को हटाकर गमन करना, जघन्य अपहृत प्राणी संयम कहलाता है। ___ इन्द्रिय अपहृत संयम भी तीन प्रकार का होता है - (1) उत्तम (2) मध्यम (3) जघन्य । (1) जन्मान्तर के प्रबल शुभ संस्कार के कारण इन्द्रिय विषयों की अभिलाषा ही उत्पन्न नहीं होवे उसे उत्तम अपहृत संयम कहते हैं। (634 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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