SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 726
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगम संबंधी लेख साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ शैली में जो सार्थकता सिद्ध की है, वह एकांतवादियों को दिशादर्शक है । यह दृष्टिगत शैली ही वास्तव में आर्ष सम्मत शैली है तथा इसके चरमोत्कर्ष का फल देवशास्त्र गुरु की भक्ति तथा आत्मा को परमात्मा बनाने का मार्ग प्रशस्त करने में समर्थ है : "एकेनाकर्षन्ति श्लथयन्ती वस्तु तत्त्वमितरेण । अन्तेन जयति जैनी, नीतिर्मन्थान नेत्रमिव गोपी॥" अर्थात् - जिस प्रकार दही को विलोने वाली ग्वालिनी, मथानी की रस्सी को एक हाथ से खींचकर दूसरी ओर से डोरी को ढीला कर देती है तथा दोनों प्रकार से दही से मक्खन बनाने की सिद्धि करती है, उसी प्रकार वाणी (अनेकांत) रूपी ग्वालिनी सम्यग्दर्शन से तत्त्वस्वरूप को अपनी ओर खींचती है। सम्यग्ज्ञान से पदार्थ के भाव को प्रगट करती तथा दर्शन ज्ञान की आचरणरूप क्रिया से रत्नत्रय की प्राप्ति का ही उपाय करती है। कितनी स्पष्ट शैली है अनेकांत की। गृहस्थ को रत्नत्रय पालन अनेकातंवाद से :आचार्य अमृतचंद्र सूरी कहते हैं कि : "इति रत्नत्रय मेतत् प्रतिसमयं विकलमपि गृहस्थेन । परिपालनीय मनिशं, निरत्ययां, मुक्तिमभिलषिता ॥" __ अर्थात् अनेकांतवाद जन्य विशुद्ध स्वरूप के जाने बिना गृहस्थ जीवन की सफलता नहीं है, तथा मुनिधर्म का महत्व जाने बिना भी जीवन की सार्थकता नहीं है । अत: इस पुरुषार्थ सिद्धयुपाय नामक ग्रन्थ में सकल रत्नत्रय तथा विकल रत्नत्रय का वर्णन भी अनेकांत दृष्टि से महत्वपूर्ण है। सार्थकता अनेकांतवाद की : वस्तु के यथार्थज्ञान के लिए अनेकांतवाद की सार्थकता जैनाचार्यों ने बताई है। एकांतवाद से वस्तु के सही स्वरूप को जाने बिना व्यर्थ के विवाद पैदा हो जाते हैं। हठ पूर्वक किसी वस्तु को सिद्ध करना समझदारी नहीं है। अनेकांतवाद ही मानव कल्याण का साक्षात आधार है । हम इसे लौकिक उदाहरण द्वारा देखें : __ "किसी गाँव में प्रथम बार हाथी आया। गाँव वालों ने अब तक हाथी नहीं देखा था। वे गाँव के पाँच अन्धे, हाथी से पूरी तरह अपरिचित थे। जब उन्होंने सुना -" हाथी आया है तो सभी की तरह वे भी हाथी के पास पहुँचे। आँखों के अभाव में पाँचों अंधों ने हाथी को छूकर अलग-अलग से बताया । एक ने क्रमश: पूँछ को छूकर कहा कि हाथी रस्सी की तरह है। दूसरे ने पैर छूकर कहा कि हाथी खम्भे जैसा है। तीसरे ने सूंड छूकर कहा कि यह तो कोई झूलने वाली वस्तु है। चौथे ने पेट/धड़ छूकर कहा कि हाथी दीवार के समान है । पाँचवे ने उसके कान छूकर कहा कि यह तो सूप की आकृति वाला प्राणी है । पाँचों ने अपनी एकांत दृष्टि से जो अनुभव में आया कह दिया किन्तु जब वे हठ पकड़कर झगड़ने लगे तब समझदार व्यक्ति ने कहा कि “कान, पेट, पैर, सूंड और पूंछ आदि अवयवों को मिलाने पर हाथी का पूर्ण रूप सिद्ध होता है।" 623 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy