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________________ आगम संबंधी लेख साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ रहस्य मालूम पड़ा तो वे क्रोध में आकर समन्तभद्र से सही बात पूछने लगे । तब उन्होंने अपना सही परिचय इस प्रकार दिया : काञ्च्यां नग्नाटकोऽहं मलमलिनतनुर्लाम्बुसे पाण्डुपिण्ड: पुण्ड्रोण्डे शाक्यभिक्षुर्दशपुरनगरे, मिष्टभोजी परिव्राट् । वराणस्यामभूवं शशधर धवल: पाण्डुरंगस्तपस्वी राजन् ! यस्यास्ति शक्ति: स वदतु पुरुतो जैननैर्ग्रन्थवादी॥ अर्थात् काञ्ची में मलिन वेशधारी दिगम्बर रहा, लाम्बुस नगर में भस्म रमाकर शरीर को श्वेतवर्ण किया। पुण्डोष्ड में जाकर बौद्ध भिक्षु बना, दशपुर, नगर में मिष्ट भोजन करने वाला सन्यासी बना, वाराणसी में श्वेतवस्त्र धारी तपस्वी बना । राजन , आपके सामने यह दिगम्बर जैनवादी खड़ा है । अत: मैं शास्त्रार्थ के लिए तैयार हूँ। राजा के शिवमूर्ति को नमस्कार करने के आग्रह को उन्होंने नहीं माना तथा कहा कि मेरी निर्ग्रन्थ आस्थाभावना के कारण यह मूर्ति मेरी भावना को सहन नहीं कर सकेगी तथापि मेरे किसी के प्रति निंदा के भाव नहीं है । उन्होंने चौबीस तीर्थकरों की स्तुति करते समय जब आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभु भगवान की स्तुति की तभी शिव पिंडी फटी तथा उसमें से चन्द्रप्रभ भगवान की मूर्ति निकल पड़ी। यही स्तवन स्वयंभूस्तोत्र के नाम से आजकल प्रसिद्ध है |इस प्रभावना पूर्ण घटना के बाद अनेक लोगों ने जैन धर्म धारण किया क्योंकि जैनधर्म किसी जाति, वर्ग, रंग, मत में विभाजित नहीं है। जो भी अपनी आत्मा को परमात्मा बनाने का अन्य प्रयास कर सके वही जैन है। सारांश समाहार : आचार्य समन्तभद्र परिस्थितिजन्य संयम से भ्रष्ट हुए थे किन्तु उनका जो निर्मल सम्यग्दर्शन था वह कभी भी विचलित नहीं था । अन्तरंग में यही भावना थी : सुखी रहें सब जीव जगत के, कोई कभी न घबरावें। बैरभाव अभिमान छोड़ जग, नित्य नये मंगल गावें॥ अथवा कोई कैसा ही, भय या लालच देने आवे । तो भी न्याय मार्ग से मेरा कभी न पथ डिगने पावे ॥ इसी अतिशयकारी व्यक्तित्व के धनी आचार्य समन्तभद्र को मैं केवल जैनागम की प्रभावना करने वाला न मानकर सर्वधर्म समानत्व की महती प्रभावना करने वाला जैनाचार्य मानता हूँ। आगम में सम्यग्दर्शन का धारी निर्मल परिणामी तथा भव्यात्मा कहा गया है। आचार्य समन्तभद्र भी भारतवर्ष में जैनागम सम्मत परम्परा में भावी तीर्थंकर होने वाले है। उन्हें चारण ऋद्धि प्राप्त थी। ऐसे अतिशयकारी मनीषी आचार्य का व्यक्तित्व एवं कृतित्व विशेष "स्मृति ग्रन्थ" में प्रकाशित होना एक अभिनंदनीय परम्परा है। अतः सम्पादक मण्डल सहित सभी के प्रति पवित्र भावनाओं से परिपूरित साधुवाद। 618 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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