SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 701
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगम संबंधी लेख साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ इसी बात को एक दृष्टांत के माध्यम से वे कहते हैं कि - समस्त जीवन राजा शस्त्र चलाना सीखे और युद्धक्षेत्र में शस्त्र चलाना भूल जाये तो जीवन भर किया गया उसका समस्त शस्त्राभ्यास व्यर्थ है।' 12. समाधि साधक की आद्यान्त क्रियायें - साधक द्वारा जो भी पाप कृत, कारित, अनुमोदना से पूर्व में जीवनपर्यन्त गृह व्यापार में हुए हैं अथवा मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, प्रमाद, योग, बुरी सङ्गति आदि अन्य कारणों से हुए हैं, उन सभी पापों का नाश करने के लिए साधक को आचार्य के समक्ष आकम्पित, अनुमानित, दृष्ट, बादर, सूक्ष्म, छन्न, शब्दाकुलित, बहुजन, अव्यक्त और सत्सेवित - इन दश दोषों से रहित होकर स्वयं आलोचना करनी चाहिए । तदनन्तर सम्पूर्ण परिग्रहों का त्यागकर समस्त महाव्रत धारण करना चाहिए । इसमें प्रथम शरीरादिक एवं भाई - बंधु आदि कुटुम्बी लोगों में निर्ममता (अपनत्व त्याग) का चितवन कर बाह्य परिग्रह का त्याग करना, तत्पश्चात् शोक, भय, स्नेह, कलुषता, अरति, रति, मोह, विषाद, रागद्वेष आदि को छोड़कर अंतरङ्ग परिग्रह का त्याग करना चाहिए। साथ ही बारह प्रकार के व्रतों को ग्रहण करना चाहिए। इसके पश्चात् सिद्धांत - ग्रन्थों का अमृतपान तथा महा आराधना अर्थात् समाधि से सम्बंधित ग्रन्थों को पढ़कर और तत्व एवं वैराग्य का निरुपण करने वाले ग्रन्थों को पढ़कर मन शांत करना चाहिए । इनके अध्ययन के साथ ही अवमौदर्य तप के द्वारा आहार को प्रतिदिन घटाना चाहिए और अनुक्रम से घटाते-घटाते हुए समस्त आहार का त्याग कर देना चाहिए। फिर उसका भी त्यागकर तक्र (मट्ठा) एवं छाछ का सेवन करना चाहिए। फिर उसका भी त्याग कर गर्म जल ही ग्रहण करे तथा जब तक पूर्ण रूप से अंत समय निकट न हो तब तक जल का त्याग न करे और अंत समय निकट आते ही उसका भी त्याग कर शुभ उपवास धारण करें। सिद्धांतशास्त्रों के पारगामी निर्यापक महाचार्य को निवेदन कर उनकी आज्ञानुसार मरणपर्यन्त तक के लिए उपवास धारणकर बहुत यत्न से उसका निर्वाह करना चाहिए। अंत समय निकट होने पर पाँचों परमेष्ठियों के नाम का मंत्र जाप करना चाहिए। यदि साधक इसके उच्चारण में असमर्थ हो तो तीर्थंकर के वाचक 'णमो अरिहंताणं' इस एक ही पद का जप करें। यदि वचनों से उच्चारण में असमर्थ हो तो मन में ही जप करें। यदि मन में भी जप करने में असमर्थ हो तो उत्तर साधना करने वाले साधक को वैयावृत्य करने वाले अन्य लोग प्रतिदिन उनके कान में मंत्रराज का पाठ सुनायें। इस प्रकार आराधक को मोक्ष-प्राप्ति के लिए अंत में जिनमुद्रा धारणकर प्राणोत्सर्ग करना चाहिए। 13. सल्लेखना के अतिचार : ___ पण्डितप्रवर आशाधर जी ने क्षपक को पाँच अतिचारों से रहित सल्लेखना विधि में प्रवृत्ति करने का उपदेश देते हुए कहा है कि - जीवितमरणाशंसे सुहृदनुरागं सुखानुबंधमजन् । सनिदानं संस्तरगश्चरेच्च सल्लेखना विधिना ॥ अर्थात् संस्तर (सल्लेखना) में स्थित क्षपक जीवन तथा मरण की इच्छा, मित्रानुराग, सुखानुबंध और निदान को छोड़ते हुए सल्लेखनाविधि से आचरण करे। 598 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy