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________________ आगम संबंधी लेख साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ इसी प्रकार धर्मसंग्रह श्रावकाचार में भी वर्णित है कि क्रम-क्रम से रागादि के घटाने को बाह्य सल्लेखना कहते हैं। राग, द्वेष,मोह, कषाय शोक और भयादि का त्याग करना हितकारी आभ्यन्तर सल्लेखना है। अन्न, खाने योग्य वस्तु, स्वाद लेने योग्य वस्तु तथा पीने योग्य वस्तु - इस प्रकार चार तरह की भुक्ति का सर्वथा त्याग करना, यह बाह्य सल्लेखना है।" 5. द्रव्य तथा भाव रूप दो भेद : पंचास्तिकाय की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में आचार्य जयसेन ने द्रव्य सल्लेखना और भाव सल्लेखना - इन दो भेदों का कथन किया है वे लिखते है कि - आत्मसंस्कार के पश्चात् उसके लिए (साधक के लिए) ही क्रोधादि कषायरहित अनन्तज्ञानादि गुणलक्षण परमात्मपदार्थ में स्थित होकर रागादि विकल्पों का कृश करना भाव सल्लेखना है और उस भाव सल्लेखना के लिए काय-क्लेशरूप अनुष्ठान करना अर्थात् भोजन आदि का त्याग करके शरीर को कृश करना द्रव्य सल्लेखना है।' कषायों को न घटाने वाले के लिए शरीर का घटाना निष्फल है, क्योंकि ज्ञानियों द्वारा कषायों का निग्रह करने के लिए ही शरीर कृश किया जाता है।' इस कथन से स्पष्ट है कि कषायों को कृश करने पर शरीर निश्चित ही कृश होता है, किन्तु शरीर कृश करने पर कषायें कृश हो भी सकती हैं और नहीं भी। क्योंकि आहार के द्वारा मदोन्मत्त होने वाले पुरुष को कषायों का जीतना असम्भव ही है।' 6. समाधि के भक्तप्रत्याख्यानादि तीन भेद : धवला टीका के लेखक आचार्य वीरसेन ने सल्लेखना के प्रायोपगमन, इंगिनिमरण तथा भक्तप्रत्याख्यान- इस प्रकार तीन भेद किये हैं। वे कहते हैं कि - तत्रात्मपरोपकारनिरपेक्षं प्रायोपगमन | आत्मोपकारसव्यपेक्षं परोपकारनिरपेक्षं इंगिनीमरणम् आत्मपरोपकारसव्यपेक्षं भक्तप्रत्याख्यानमिति ।" अर्थात् अपने और पर के उपकार की अपेक्षा रहित समाधिमरण करना प्रायोपगमन है तथा जिस सन्यास में अपने द्वारा किये गये वैयावृत्य आदि उपकार की अपेक्षा रहती है, किन्तु दूसरे के द्वारा किये गये वैयावृत्य आदि उपकार की अपेक्षा सर्वथा नहीं रहती, उसे इंगिनीमरण समाधि कहते हैं। इसी प्रकार जिस सन्यास में अपने और दूसरे - दोनों के द्वारा किये गये उपकार की अपेक्षा रहती है, उसे भक्तप्रत्याख्यान सन्यास कहते हैं। वर्तमान में भक्तप्रत्याख्यान मरण ही उपयुक्त है। अन्य दो अर्थात् इंगिनीमरण तथा प्रायोपगमन संभव नहीं है, क्योंकि ये दो मरण संहनन-विशेष वालों के ही होते हैं । इंगिनीमरण के धारक मुनि प्रथम तीन (वज्रवृषभनाराच, वज्रनाराच तथा नाराच) संहननों में से कोई एक संहनन के धारक रहते है।" किन्तु इस पंचम काल में मात्र असंप्राप्तासृपाटिका संहनन ही होता है, अतएव भक्तप्रत्याख्यान मरण की संभव है। 595) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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