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________________ आगम संबंधी लेख साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ अनेक क्षेत्रों में विहार करने से साधु तीर्थकरों की जन्म, तप, ज्ञान और समवशरण की भूमियों के दर्शन और ध्यान करने से अपने सम्यक्त्व को निर्मल रखता है। जगह-जगह विहार के काल में अन्य वीतरागी साधकों से मिलने पर संयम की अभिवृद्धि होती है उनके उत्तम चारित्र को जानकर स्वयं उत्तम चारित्र पान के प्रति उत्साह बढ़ता है। सदाकाल विहार करते रहने पर धर्म में प्रीति बढ़ती है । पाप से भयभीत रहता है। सूत्रार्थ में प्रवीणता आती है। दूसरे के संयम को देखने से धर्माराधकों की धर्माराधना को देखने से स्वयं को धर्म में स्थितिकरण की भावना जगती है।' निरंतर विहार करने वाले साधु को चर्या परीषह होती है, कंकण मिट्टी पैरों में चुभती है । पादत्राण रहित चरणों से मार्ग में चलने पर जो वेदना उत्पन्न होती है उसे संक्लेश भाव रहित सहन करने पर चर्यापरीषह सहन होती है जिससे संयम की वृद्धि होती है । क्षुधा, तृषा, शीत उष्ण परीषह सहन की शक्ति बढ़ती है । ' अनेक क्षेत्रों में विहार करने वाले साधु को अतिशय रूप अर्थ में प्रवीणता भी आ जाती है। जैसा कि कहा है - णाणादेसे कुसलो णाणादेसे गदाण सत्थाणं । अभिलाव अत्थकुसलो होदि य देसप्पवेसेण ॥ भग. आ. 150 नवीन - नवीन स्थानों पर विहार करने से अनेक देशों के रीति-रिवाजों का ज्ञान होता है लोगों के चारित्र पालन की योग्यता - अयोग्यता की जानकारी होती है। अनेक मंदिरों आदि स्थानों पर विराजमान शास्त्रों में प्रवीणता होती है । अर्थ बोध होता है। अनेक आचार्यों के दर्शन लाभ से अतिशय रूप अर्थ में कुशलता भी होती है। देशांतरों में विहार करने वाले साधु को उस क्षेत्र का परिज्ञान होता है जो क्षेत्र कर्दम, अंकुर त्रस जीवों बहुलता से रहित हैं । जीव बाधा रहित गमन योग्य क्षेत्र को भी जान लेता है । जिस क्षेत्र में आहार पान मिलना सुलभ होता है और सल्लेखना आदि के योग्य होता है उसका भी ज्ञान होता है । इसलिए अनियतविहार आवश्यक है ।' इस संबंध में और भी कहा है - प्रेक्ष्यन्ते बहुदेश संश्रयवशात्संवेगिताद्यांप्तय - स्तीर्थाधीश्वर केवली द्वयमही निर्वाणभूम्यादय: । स्थैर्यं धैर्यं विरागतादिषु गुणेष्वाचार्यवयें, क्षणाद्विद्या वित्तसमागमाधिगमो नूनार्थ सार्थस्य च ॥ अनियतविहार करने में अनेक देशों का आश्रय लेना पड़ता है जिसमें संवेग वैराग्य आदि अनेक गुणों को धारण करने वाले अनेक आप्तजनों के पूज्य पुरुषों के दर्शन होते हैं। तीर्थंङ्गरों को जहाँ जहाँ केवलज्ञान प्रगट हुआ है अथवा जहाँ जहाँ निर्वाण प्राप्त हुआ है उन समस्त तीर्थक्षेत्रों के दर्शन प्राप्त होते हैं। अनेक उत्तमोत्तम आचार्यों के दर्शन से धीरता वैराग्य आदि तथा उत्तम गुणों से स्थिरता प्राप्त होती है और विद्यारूपी धन की प्राप्ति होने से निश्चित अर्थों के समूह का ज्ञान होता है। 571 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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