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________________ आगम संबंधी लेख साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ अर्थात् केवलज्ञानी आत्मा (सर्वज्ञ) पदार्थो को जानता हुआ भी उस रूप में परिणमित नहीं होता, उन्हें ग्रहण नहीं करता और उन पदार्थो के रूप में उत्पन्न नहीं होता । इसलिए उस आत्मा के ज्ञप्ति क्रिया का सद्भाव होने पर भी वास्तव में क्रिया फलभूत बंध सिद्ध न होने पर उन्हें अबंधक कहा गया है। क्योंकि केवली भगवान ज्ञेय पदार्थो को न ग्रहण करते है न त्याग करते है। और उन पदार्थो के रूप में परिणमित नहीं होते, फिर भी निरवशेष रूप में सबको अर्थात् सम्पूर्ण आत्मा एवं सभी ज्ञेयों को सभी आत्म प्रदेशों से देखते और जानते हैं। वस्तुतः पदार्थ न ज्ञान के पास आते हैं, न ज्ञान पदार्थ के पास जाता है। जैसे दर्पण के सामने जो भी पदार्थ हो वे एक दूसरे के पास गये बिना भी उसमें प्रतिविम्बित होते है। उसी तरह विश्व में जितने भी पदार्थ है वे ज्ञान में प्रतिविम्बित होते हैं। इस तरह जैन धर्म दर्शन में ज्ञान की स्वरूप विवेचना अति सूक्ष्म और गहन रूप में प्रस्तुत की गई है। इसीलिए रत्नत्रय में सम्यग्ज्ञान को अतिमहत्वपूर्ण माना गया है। क्योंकि ज्ञान रूपी प्रकाश ही ऐसा उत्कृष्ट प्रकाश है जिसका हवा आदि कोई भी पदार्थ प्रतिघात (विनाश) नहीं कर सकता । सूर्य का प्रकाश तो तीव्र होते हुए भी अल्प क्षेत्र को ही प्रकाशित करता है किन्तु यह ज्ञान प्रदीप समस्त जगत् को प्रकाशित करता है। अर्थात् समस्त वस्तुओं में व्याप्त ज्ञान के समान अन्य कोई प्रकाश नहीं है इसलिए इसे द्रव्य स्वभाव का प्रकाशक कहा गया है। सम्यग्ज्ञान से तत्त्वज्ञान, चित्त का निरोध तथा आत्मविशुद्धि प्राप्त होती है। ऐसे ही ज्ञान से जीव राग से विमुख तथा श्रेय में अनुरक्त होकर मैत्रीभाव से प्रभावित होता है। भगवती आराधना (गाथा 771 में) कहा कि ज्ञान रूपी प्रकाश के बिना मोक्ष का उपायभूत चारित्र, तप,संयम आदि की प्राप्ति की इच्छा करना व्यर्थ है। इस तरह सम्यग्ज्ञान संसारी जीवों को अमृतरूप जल से तृप्त करने वाला होता है। इसीलिए किसी भी साधक के लिए सम्यग्दर्शन की तरह सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति आवश्यक है तभी उसका चारित्र सम्यक्चारित्र की कोटि में मान्य है और ऐसा ही रत्नत्रय मोक्षमार्ग को प्रशस्त करता है। 562 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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