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________________ आगम संबंधी लेख 'वसुधैव कुटुम्बकम्' इसका आधुनिकीकरण हुआ है । वसु यानी धन-द्रव्य ही कुटुम्ब बन गया है ही मुकुट बन गया है जीवन का | 19 अर्थ की बढ़ती लालसा ने अर्थ और परमार्थ दोनों को ही छला है। अर्थ के लिए हिंसक संघर्ष आम बात हो गई है। हिंसा का अर्थ के लिए उपयोग सही नहीं है। आज सरकारें बदलने के लिए धनबल और बाहुबल का सहारा लिया जाने लगा है कि जबकि लोकतंत्र मे जनबल ही सर्वोपरि होता है। इस अनर्थ से अर्थ का प्रलोभन दूर होने पर ही बचा जा सकता है। आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज लिखते हैं कि यह कटु सत्य है कि अर्थ की आँखें Jain Education International साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ परमार्थ को देख नहीं सकती अर्थ की अर्थ की लिप्सा ने बड़ों- बड़ों को निर्लज्ज बनाया है। 20 श्रावक अर्थ का संचय अपनी आवश्यकताओं के अनुसार ही करता है । वह धनादिक पदार्थो को ही नहीं घटाता अपितु अपनी आवश्यकताओं को भी कम करता जाता है ताकि उसके संचित साधन अन्य के काम आ सकें । इसलिए वह अपनी स्वअर्जित सम्पत्ति में से निरंतर दान किया करता है। यह दान राष्ट्र के कल्याण में सहायक बनता है। राष्ट्र के दीन दुखी प्राणियों को अभय प्रदान करता है । 21 तत्वार्थ सूत्र 2' में आचार्य उमा स्वामी ने अणुव्रतों के अतिचारों का वर्णन किया है जिन से जैन श्रावक बचता है। जैन श्रावक जहाँ अहिंसाणुव्रत के रूप में बंध, वध, छेद, अतिभारारोपण एवं अन्नपान निरोध से बच कर प्राणियों को अभय दान देता है। - सत्यव्रत के रूप में मिथ्या उपदेश, रहोभ्याख्यान, कूट लेख क्रिया, न्यासापहार और साकार मंत्र भेद से बचता है । 551 अचौर्य अणुव्रत के रूप में स्तेन (चोर को चोरी करने की स्वयं प्रेरणा करना, दूसरे से प्रेरणा करवाना, कोई चोरी करता हो तो उसकी सराहना करना, चोरी का उपाय बताना), तदाहृतादान ( चोरी का माल खरीदना), विरुद्धराज्यातिक्रम (राज नियम के विरुद्ध कर चोरी करना), हीनाधिक मानोन्मान ( बेचने और खरीदने, तोलने और बेचने तथा नापने आदि के बाट, तराजू आदि कम या अधिक माप या वजन के रखना), प्रतिरूपक व्यवहार (कीमती वस्तु में कम कीमत की वस्तु मिलाना) आदि कार्यों को चोरी मानता है और इन्हें कभी नहीं करता है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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