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________________ आगम संबंधी लेख साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ त्याग कर चुके हैं। उनके लिए तो निश्चय नय दृष्टि से ज्ञातव्य है कि आत्मदेव देवालय में नहीं है, प्रतिमा में भी नहीं है, चित्राम की मूर्ति में भी नहीं है, वह देव अविनाशी है, कर्म अंजन से रहित है, जिनपरमात्मा समभाव में स्थित है, अपने देह रूपी देवालय में ही जिनदेव विराजमान हैं। किन्तु अपरम भाव में स्थित मुनि व गृहस्थों को तो मन के अवलम्बन के लिए, ध्यान के लिए मूर्तिपूजा अभीष्ट है। मुनि परक शास्त्रों में भी मूर्तिपूजा का स्पष्ट उपदेश दिया गया है, यथा - "हे मुनिगण ! आप अर्हन्त और सिद्ध की अकृत्रिम और कृत्रिम प्रतिमाओं में भक्ति करो।" शत्रुओं अथवा मित्रों का प्रतिविम्ब अथवा प्रतिमा दिखाई देने पर द्वेष और प्रेम उत्पन्न होता है । यद्यपि उस फोटो में स्वयं अनुपकार या उपकार कुछ भी करने की इच्छा रूप चेतन भाव नहीं है परन्तु वह शत्रुकृत अनुपकार या मित्रकृत उपकार का स्मरण होने में कारण है। जिनेश्वर और सिद्धों के अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, सम्यक्त्व और वीतरागतादिक गुण यद्यपि अर्हत् और सिद्ध प्रतिमा में नहीं है तथापि गुणों के स्मरण होने में वे कारण अवश्य होती है क्योंकि अर्हत् और सिद्धों का उन प्रतिमाओं में सादृश्य है। यह गुण - स्मरण अनुराग स्वरूप होने से ज्ञान और श्रद्धान को उत्पन्न करता है और इनसे नवीन कर्मों का अपरिमित संवर और कर्मों की महा निर्जरा होती है । निधत्ति और निकाचित भी कर्मों का क्षय जिन विम्ब दर्शन से हो सकता है। इसलिए आत्मस्वरूप की प्राप्ति होने में सहायक चैत्य भक्ति सदैव करना चाहिए। गणधर स्वामी एवं आ. कुन्दकुन्द ने दश भक्तियों में चैत्य भक्ति द्वारा प्रतिमाओं की अर्चना की है। जिनागम में जिन प्रतिमाओं को साक्षात् जिनेन्द्र भगवान मानकर मूर्तिपूजा को अनिवार्य रूप से महत्वपूर्ण एवं उपयोगी उद्घोषित किया गया है। यहाँ एक प्रश्न संभव है कि प्रतिमा परद्रव्य है, अचेतन जड़ है, निग्रह और अनुग्रह करने में समर्थ नहीं है, ऐसी प्रतिमा की भक्ति सेवा पूजा से स्वर्ग और मुक्ति की प्राप्ति कैसे संभव है. क्या लाभ ? उसका समाधान यह है कि मूर्ति शांतस्वरूप धारण किए हुए है। वह ध्यान की विधि दिखलाती है । दृढ़ आसन, नासाग्रदृष्टि, सम्पूर्ण परिग्रह रहित नग्न, निराभरण, निर्विकार जैसा भगवान का साक्षात् स्वरूप है, वैसा स्वरूप प्रतिमा जी को देखने से स्मरण में, ध्यान में आता है। इससे भाव निर्मल होते हैं। जो व्यक्ति अभ्यास करके प्रतिमा को सांगोपांग अपने चित्त में ध्याता है, वह वीतरागता प्राप्त करता है। जैसी संगति होती है वैसा फल प्राप्त होता है । जैसे कल्पवृक्ष, चिंतामणि, औषध, मंत्र आदि सब निमित्त अचेतन द्रव्य हैं परन्तु चेतन के लिए वे फलदाता है, उसी प्रकार भगवान की प्रतिमा अचेतन है, परन्तु फलदाता है ऐसा जानकर लाभदायक स्वीकार कर, संशय का परित्याग कर जिनप्रतिमा की पूजा करना योग्य है । यह ध्यान देने योग्य है कि बिना मूर्ति की मान्यता के तो लोक व्यवहार चलना ही संभव नहीं है । सरकारी मुद्राओं में, राजचिन्ह भी मूर्ति ही है, जिसकी अवमानना अपराध माना जाता है। घरों व कार्यालयों पूज्यों के फोटो व प्रतीकों को भी पूज्य आदरणीय मानकर उनको लगाया जाता है। मूर्ति पूजा के विरोधियों कार्य भी मूर्ति, चित्र आदि के बिना चलता दृष्टिगोचर नहीं होता है । शिक्षण कार्यो में भी तत् विषय संबंधी चित्रों आदि के माध्यम का प्रयोग आवश्यक है । एकलव्य द्वारा गुरु द्रोणाचार्य की प्रतिमा सम्मुख स्थापित कर धनुर्विद्या की सिद्धी का लौकिक उदाहरण मूर्ति पूजा के महत्व को प्रकट करता है । 538 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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