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________________ आगम संबंधी लेख साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ हुए, उनका कारण वाणी असंयम था अत: प्राणी जितना संयम का पालन करते हैं उससे कई गुना वाणी संयम का पालन जरूरी है। जिन शासन कहता है कि व्यक्ति की पहचान वर्ण से मत करो, वाणी से करो। अज्ञानी वर्ण को देखता है जबकि ज्ञानी वाणी को देखता है। वर्ण तो भगवान नेमिनाथ स्वामी का, भगवान मुनिसुव्रत का कैसा था ? अरे ! तुम शरीर को देखकर मुमुक्षु की खोज मत करना। अहो ! शरीर के काले का तो मोक्ष हो सकता है, पर मन के कलूटे का कभी मोक्ष नहीं। जो शरीर से गोरा हो और मन से काला हो, उसको तो परमेश्वर भी नहीं सुधार सकते। भो ज्ञानी ! जयसेन स्वामी ने पंचास्तिकाय की टीका में इसका बड़ा सुन्दर समाधान दिया है कि धर्म से दु:ख नहीं है, धर्म से दु:ख होने लग गया तो क्या सुख कर्म से मिलेगा ? महाराज श्री! देखा तो यही जाता है कि जो बड़ा दुष्कर्मी है, उनकी पूजा हो रही है, मालाएँ पड़ रही हैं और जय जय कार हो रही है,समाज भी सबसे आगे उसी को रखती है। भो ज्ञानी! यह पूर्व में किये गये सदकर्मो का प्रभाव झलक रहा है। ये दुष्कर्म का प्रभाव नहीं है। इसने पूर्व में ऐसा सुकृत किया था जो कि आज उदय में सामने दिख रहा है। उसके तीव्र पुण्य का उदय चल रहा है, इसलिए पाप अभी दिखाई नहीं पड़ रहे हैं। दूसरी तरफ आप पूजा करते दु:खी नजर आ रहे हो, आप पूजा के फल से दु:खी नहीं हो। आपने पूर्व में ऐसे दुष्कर्म का बंध किया था कि आज तुम्हारी पूजा भी उतनी प्रतिफलित नहीं हो रही है, पर यह पूजा तुम्हारी नियम से फलीभूत होगी। भो ज्ञानी ! यदि आप विभूति को सर्वस्व मान रहे हो तो भेद - विज्ञान क्या है ? आचार्य समंतभद्र स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में इस बात को स्पष्ट करते हुए कहा है कि राजा की सेवा वही करता है जिसको कुछ चाहिए है। जिसके रागद्वेष की निवृत्ति हो चुकी है उसको क्या राजा और क्या रंक ? किसी से भी मतलब नहीं है। जो विभूति के लिए तंत्र-मंत्र के पीछे दौड़ रहे हैं, उन्हें न तो अपने पुण्य पर विश्वास है और न जिनवाणी में। चमत्कार में लुट रहे हो, पर आत्म चमत्कार को खो रहे हो। यदि संसार के देवी - देवता कुछ दे जाते होते तो वे स्वयं अपनी आयु को क्यों नहीं बढ़ा लेते ? ध्यान रखना, अज्ञानी चमत्कारों में घूमता है, ज्ञानी चेतन - चमत्कार में रमण करता है। जिससे शांति मिले, सुख मिले, वही तो विभूति है जिससे अशांति मिले, वह विभूति किस काम की ? आचार्य समंतभद्र स्वामी कहते है : यदि पाप निरोधोऽन्य सम्पदा किं प्रयोजनम् । अथ पापास्रवोऽस्त्यन्यसम्पदा किं प्रयोजनम् ॥ र.क.श्रा.॥ यदि पाप का निरोध हो गया है, तो सम्पदा का क्या प्रयोजन है और पापास्त्रव जारी है तो सम्पदा से क्या प्रयोजन है। इसी तरह कहा गया है कि - पूत सपूत तो क्या धन संचय ? पूत कपूत तो क्या धन संचय ? अर्थात् बेटा सुपुत्र है तो धन जोड़ने से क्या फायदा, वह स्वत: कमा लेगा और यदि बेटा कुपुत्र है तो धन जोड़ने से क्या फायदा, वह सब धन बर्बाद कर देगा। -520 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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