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________________ आगम संबंधी लेख साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ भेद विज्ञान से आत्मज्ञान जह कुणइ को वि भेयं पाणिय-दुद्धाण तक्जोएणं । णाणी वि तहा भेयं करेई वरझाण-जोएणं ॥ अर्थ : जैसे कोई पुरुष तर्क के योग से पानी और दूध का भेद करता है, उसी प्रकार ज्ञानी पुरुष भी उत्तम ध्यान के योग से चेतन और अचेतन रूप स्व- पर का भेद करता है। अंतिम तीर्थेश भगवान महावीर स्वामी के पावन जिन शासन को जाज्वल्यमान करने वाला आचार्य शासन तब प्रारंभ हुआ जब आचार्य भगवन्तों ने चारों अनुयोगों पर अविच्छिन्न ज्ञान की धाराओं को बहाया। उन्हीं आचार्यों की श्रेणी में भगवन् देवसेन स्वामी हैं, जिन्होंने अनुपम अनुकम्पा कर ऐसे अभूतपूर्व ग्रंथ का सृजन किया जिसमें तत्त्व का सार निहित है। वास्तव में तत्त्व को जिसने समझा है वही तत्त्वसार है। जिसने तत्त्व को नहीं समझा। वह तत्त्व का ज्ञाता तो हो सकता है, तत्त्वसार नहीं हो सकता, क्योंकि सार अपने आप में सत् स्वरूप है । जब बाहर का सब निकल जाता है, अंत में जो बचता है, वह सार है । ऐसे ही साधना का चरमसार ध्यान है। उस ध्यान की सिद्धी जिसे हो चुकी है, वही अनंतज्ञान का धारी अरिहंत है, वही सिद्ध है । उस ध्यान की सिद्धी हेतु आचार्य भगवन् देवसेन स्वामी अपने विषय को आगे बढ़ाते हुए संकेत कर रहे हैं कि आपको विश्वास तो हो गया, श्रद्धा तो हो गई किन्तु नीर को क्षीर में कितना ही मिला दो, परन्तु सत्ता दोनों की स्वतंत्र है क्षीर क्षीर है, नीर नीर है, यह भेद - विज्ञान बहुत जरूरी है। आज तक संसार में भटका, तो उसका मूल हेतु भेद - विज्ञान का अभाव है। भो ज्ञानी ! भेद - विज्ञान क्या ? मिलावट को मिलावट समझना, वास्तविक को वास्तविक समझना। मिलावट को समझ लिया बस, उसी का नाम भेद - विज्ञान है। आत्मा में कर्म मिल गए, जिसने एक मान लिया उसमें भेद - विज्ञान का अभाव है। जिसने यह मान लिया कि कर्म भिन्न हैं, आत्मा भिन्न हैं - ऐसा अनुभवन करता है ज्ञानी । संसार का जो भ्रमण है वह मिश्र अवस्था के कारण ही है। देखो तिल को पिलना पड़ता है, क्योंकि उसके अंदर स्निग्धता है। तुम्हें संसार में क्यों रूलना पड़ रहा है ? कयोंकि तुम्हारे में राग की स्निग्धता है । भो चेतन ! तेल की चिकनाई तो जल्दी दूर हो जाती है पर राग की चिकनाई बड़ी प्रबल है। आचार्य भगवन अमृतचंद स्वामी ने अध्यात्म अमृत कलश के 131 वें कलश में कहा है : भेद विज्ञानत: सिद्धा सिद्धा ये किल केचन । अस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन ॥ जितने जीव आज तक सिद्ध हुए है वे सभी भेद-विज्ञान से हुए हैं और जितने जीव आज बंध रहे हैं, वह भेद-विज्ञान के अभाव में बंध रहे हैं। आचार्य देवसेन महाराज उसी भेद - विज्ञान की चर्चा कर रहे हैं। जब तक भेद-विज्ञान नहीं होगा तब तक वीतराग - विज्ञान का जन्म नहीं होगा, और जब तक तुम भौतिक - विज्ञान में जी रहे हो तब तक भेद - विज्ञान होने वाला नहीं। 518 - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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