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________________ आगम संबंधी लेख साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ अहो ! संसार की दशा ही ऐसी है। सबल निर्बल को सताते है । कभी सबल निर्बल हो जाते है । निर्बल और सबल एक-दूसरे को पीड़ा पहुँचाते है। बड़ी मछली छोटी मछली को निगल जाती है। भूख प्यास की तीव्र वेदना तिर्यंचों को हुआ करती है। कभी - कभी क्षुधा तृषा की तीव्र बाधा के आने पर प्राण भी निकल जाते हैं । इस प्रकार पूर्व में किये मायाचार के परिणाम को जीव इस पर्याय में दारूण दुःखों के रूप में दण्ड को प्राप्त होता है । मनुष्य गति के दुःख - 'एवं वहुप्पयारं दुक्खं विसहेदि तिरिय - जोणीसु ।' तत्तणी सरिदूणं लद्धिअपुण्णो णरोहोदि ॥ का. अ. 44 ll इस प्रकार तिर्यंच - योनि में जीव अनेक प्रकार के दुःख सहता है। वहाँ से निकलकर लब्धिपर्याप्तक मनुष्य होता है। स्त्रियों की काँखादि प्रदेशों में सम्मूर्च्छन मनुष्य प्रचुर मात्रा में उत्पन्न होते हैं । तथा पुरुषों के मलादि स्थानों में भी अल्प मात्रा में उत्पन्न होते हैं। इनका सम्मूर्च्छन जन्म होता है तथा शरीर पर्याप्ति पूर्ण के पूर्व ही अंतर्मुहूर्त (24 बार क्षुद्र भव धारण करता है) काल तक जीवित रहकर मरण को प्राप्त होते हैं। अथवा यदि गर्भ में भी उत्पन्न होता है तो वहाँ भी शरीर के अंगोपांग संकुचित रहते हैं । योनि-स्थान से निकलते हुए भी तीव्र दु:ख सहना पड़ता है। कभी बाल्यावस्था में ही माता-पिता की मृत्यु हो जाती है। कभी शत्रुओं का भय होता है, तो किसी के यहाँ दुष्ट संतान का संयोग होता है। कभी इष्ट का वियोग हो जाता है। इतना ही नहीं, स्वयं का शरीर भी कार्यकारी नहीं होता है। कर्म की अनोखी विचित्रता हुआ करती है । मित्र भी शत्रु हो जाता है तथा शत्रु भी मित्र हो जाता है। यह संसार का स्वभाव ही ऐसा है । ज्ञानी जीवन अवस्थाओं को देखकर माध्यस्थ - भाव को प्राप्त हो जाता है। चतुर्गति - संसार के स्वभाव को समझकर निज - स्वभाव की प्राप्ति का लक्ष्य बनाना अनिवार्य है । चारों ही गतियाँ विभावरूप हैं। इनमें अल्प भी सुख नहीं । एक मात्र वीतराग मार्ग में ही सुख का साधन है। पंच परावर्तन का स्वरूप संसरण करने को संसार कहते हैं, जिसका अर्थ है परिवर्तन । यह जिन जीवों पाया जाता है वे संसारी है । परिवर्तन के पाँच भेद हैं । (द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, भव) ये पाँच परावर्तन हैं। द्रव्य परिवर्तन - कर्म और नो कर्म रूप पुदगलों को क्रम क्रम से ग्रहण कर उत्पन्न होने और मरने रूप (परिवर्तन) परिभ्रमण को द्रव्य परिवर्तन कहते है । क्षेत्र परिवर्तन - लोकाकाश के सर्वप्रदेशों में क्रम से उत्पन्न होने और मरने रूप परिभ्रमण को क्षेत्र परिवर्तन कहते है । काल परिवर्तन - क्रम क्रम से उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के सब समयों में क्रम से जन्म लेने और मरने रूप परिभ्रमण को काल परिवर्तन कहते है । (516 1. 2. 3. 'सत्तू वि होदि मित्तो मित्तो वि य जायदे तहा सत्तू । कम्म - विवाग - वसादो एसो संसार - सब्भावो ॥ का.अ.57 ॥' 1 Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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