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________________ कृतित्व/हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ विश्व जैन मिशन का अधिवेशन- एक दृष्टि अखिल जैन विश्व मिशन हमारी समाज की एक शुद्ध प्रचारक संस्था है। यह संस्था अपने पवित्र उद्देश्य की पूर्ति में सतत प्रयत्नशील रहती है। अब तक इसने जैन साहित्य प्रचार व प्रसार द्वारा देश विदेश में जैनधर्म का पर्याप्त प्रचार भी किया है । 'अहिंसा वाणी के पाठक इसकी समस्त गतिविधियों व प्रचार कार्यो से पूर्ण सुपरिचित है। सच बात तो यह है कि मिशन के संचालक श्री बाबू कामताप्रसाद जी का जीवन ही संस्था का जीवन है जिन्होंने इसके माध्यम से धर्म प्रचार के लिये अपना जीवन उत्सर्ग किया है। यद्यपि इस संस्था से मेरा प्रत्यक्ष सम्बन्ध कुछ भी नहीं है तथापि इसके प्रति हृदय में गहरी आस्था अवश्य है । जीवन के मंगल-पथ पर चलने के लिये सूरदास को आखें देना जिस संस्था का उदात्त जीवन व्रत हो,जिससे किसी भी धर्म प्रेमी व्यक्तिका प्रेम होना स्वाभाविक ही है। फिर आज के भयाक्रान्त भौतिक युग में विश्व की संभ्रान्त एवं संत्रस्त मानवता को अहिंसा की वाणी से सुख और शांति के सुपथ का दिशा ज्ञान कराना जिन संस्थाओं का पवित्र जीवनोद्देश्य हो ऐसी संस्थाओं की तो आज के युग में सब से बड़ी आवश्यकता है और मिशन इस पवित्र लक्ष्य की पूर्ति में सदैव प्रयत्नशील रहता है यही इसके जीवन की महर्घता है। जैन मिशन अपने ऐसे ही विशिष्ट उद्देश्यों की पूर्ति के लिये प्रति वर्ष धार्मिक उत्सवों पर किसी नये क्षेत्र में अपना अधिवेशन करता है। इस वर्ष भी मिशन ने जैन संस्कृति की पुरातन गौरव स्थली उज्जयिनी में हो रहे पंच कल्याणक प्रतिष्ठा के अवसर पर अपने अधिवेशन का शुभ निश्चय किया है। यह इस प्रान्त की जनता रम सौभाग्य है कि उसे आज के भौतिक युग में अध्यात्म प्रधान जैन संस्कृति के आधार भूत अहिंसा अपरिग्रह आदि महा सिद्धान्तों की सुसंगति बैठालने की समन्वय पूर्ण भूमिका तैयार करने का स्वर्ण अवसर हाथ लगा है। विश्वास है कि इस प्रान्त की धर्म प्राण सम्पन्न जनता अपने पुरातन गौरव के अनुकूल ही इस संस्था के पुनीत कार्यो को बल प्रदान करने की दिशा में अग्रणी रहेगी। हमारा यह भी विश्वास है कि मिशन का यह अधिवेशन उपस्थित पिपासु जनता के जीवन में धर्म प्रेरणा की एक प्रभावपूर्ण स्मृति अंकित करके ही रहेगा। राष्ट्रीय जागरण के मंगल प्रभात में जब भौतिक उन्नति के नाना प्रयत्नों में समूची मानव शक्ति संलग्न है इस स्थिति में धर्म सर्वथा तिरस्कृत और अपेक्षित ही है। संयम और त्याग की महत्ता नष्ट होने से मनुष्य का नैतिक और आध्यात्मिक स्तर उत्तरोत्तर गिरता जा रहा है ।ऐसी स्थिति में मानवता की संरक्षा करने के लिये धर्म और संस्कृति का संरक्षण भी नितान्त आवश्यक है। धर्म के नाम पर राष्ट्रीयता की क्षति हुई है इस बहाने धर्म की महत्ता और उपयोगिता से मुंह फेर लिया जावे इसमें कौन सी बुद्धिमानी है। सत्यार्थ धर्म की इस उपेक्षा से अगर मानव की मानवता ही समाप्त हो जाती है और उसमें अशुभ वृत्तियाँ जागृत हो जाती हैं तो सोचिये राष्ट्र की क्या स्थिति होगी। एक बुराई का परिहार करने के लिये दूसरी उससे भी भयंकर बुराईयाँ उत्पन्न करने में भी राष्ट्र का कौन सा हित संभव है। वर्तमान में धर्म की इस उपेक्षा से जो राष्ट्रीय चरित्र और नैतिकता का पतन हुआ है वह हमारे अनुभवगम्य है । इसलिये देश के बड़े -बड़े कर्णधार अब इस बात की -410 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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