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________________ कृतित्व/हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ होती है, आप्त सर्व दोषों से रहित होता है और सर्व दोष रागादिक कहलाते हैइसलिये सर्व सुखदायक आप्त का युक्तिपूर्वक अच्छी तरह विचारकर सत्पुरूष श्री अर्थात् अंतरंग बहिरंग लक्ष्मी की प्राप्ति के लिए उस आप्त का आश्रय लेवे । आप्त का आश्रय लिये बिना यह जीव अनादि काल से किन-किन पर्यायों में भटका है इसका स्मरण आते ही शरीर में रोमांच हो आता है। कहा जाता है - कित निगोद कित नारकी कित तिर्यंच अज्ञान । आज धन्य मनुष्य भयो पायो जिनवर थान ॥ इस जीव ने निगोद में, नारकी में और अज्ञानी तिर्यंच अवस्था में कितना काल बिताया है, इसे कौन कह सकता है? आज धन्य भाग्य समझना चाहिये कि मनुष्य पर्याय मिली है और उसमें भी जिनेन्द्र भगवान् की शरण प्राप्त हुई हैं। इस मनुष्य पर्याय का जो सबसे प्रमुख कार्य है उसे अवश्य करना चाहिये। मनुष्य का सबसे प्रमुख कार्य संयम प्राप्त करना है क्योंकि यह मनुष्य को छोड़कर अन्य गतियों में नहीं हो सकता है। दो आदमी हैं - एक घोड़ा की सेवा करता है उसे सईस कहते हैं। सईस घोड़ा का स्वामी नहीं है। उसे घोड़ा पर बैठने का अधिकार नहीं है। किन्तु दूसरा आदमी जो घोड़ा की सेवा नहीं करता किन्तु स्वामी होने से उस पर सवारी करता है उसे रईस कहते है। इसी प्रकार एक आदमी शरीर की सेवा करता हुआ सईस बना रहता है और दूसरा आदमी शरीर से तपस्या कर उस पर सवारी करता है वह साधु रईस कहलाता है। बताओ- आप सईस बनना चाहते हैं या रईस ? आस्रवतत्त्व आस्रवतत्त्व का वर्णन करते हुए श्रीमान पं. दयाचन्द्रजी साहित्याचार्य ने कहा - आत्मा में कर्मप्रदेशों का आस्रवण-आगमन होना आस्रव कहलाता है। कुन्दकुन्दस्वामी ने इसके मिथ्यात्व, अविरमण, कषाय और योग ये चार प्रत्यय- कारण बतलाये हैं तथा उमास्वामी ने प्रमादको भी शामिल कर पाँच कारण बतलाये हैं। आस्रव के कारणों में योगों की प्रमुखता है इसलिये उमास्वामी ने 'कायवाड्मन:कर्म योगः' और 'स आस्रव:' इन सूत्रों में योग का लक्षण लिखकर उसे ही आस्रव कहा है। यह योग पहले से लेकर तेरहवें गुण स्थान तक चलता है । पं. दौलतरात जी ने कहा है - जो जोगन की चपलाई तातें है, आस्रव भाई। आस्रव दुखकार घनेरे बुधिवंत तिन्हे निरवरे ॥ जो योगों की चपलता है उसी से आस्रव होता है- ये आस्रव अत्यन्त दुःखदायक है इसलिये बुद्धिमान जीव उन्हें दूर करते हैं। जिस प्रकार सछिद्र नौका में बैठनेवाला मनुष्य अपने इच्छित स्थान पर सकुशल नहीं पहुँच सकता उसी प्रकार आस्रव से युक्त मनुष्य अपने इच्छित स्थान- मोक्षतक सकुशल नहीं पहुंच सकता। सकुशल क्या, बिल्कुल ही नहीं पहुंच सकता। -367 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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