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________________ कृतित्व/हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ सेवा है जग में सुखभूल । इसे न जाना मानव भूल ॥ समाज सेवा देश सेवा और धर्म सेवा से ही तीर्थंकरों ने, ऋषियों ने और शासकों ने लोक कल्याण किया था । पौराणिक कथाएँ और भारतीय इतिहास इसके प्रमाण है। आप यह न विचारें कि सेवा से कोई लाभ नहीं है। देखिये सेवा से अनेक फल दिखाई देते हैं । सेवा से जीवन पवित्र और महान् होता है देश में यश फैलता है । अन्याय दूर होते हैं। जीवन के कार्य अच्छे ढंग से होते हैं , आवश्यकता की पूर्ति होती है। देश-समाज धर्म की उन्नति होती है। बिना सेवा के मनुष्य महान् नहीं बन सकता । कहा भी है - बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर । पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर ॥1॥ आज के युग में समस्त नर-नारियों को देश और समाज की सेवा के लिये सदा तैयार रहना चाहिये। हमारी अनेक समस्याएँ सेवा भावी व्यक्तियों से ही सुलझ सकती हैं। स्थान-स्थान पर सेवादल, व्यायामशाला और पुस्तकालय स्थापित होना जरूरी है। अब वह समय आ गया है कि आलस और आपसी फूट को दूर कर रक्षा के कार्यो में हम सब दिनरात खड़े रहें। राष्ट्रीय क्षेत्रों में जी जान से भाग लेना चाहिये । सेवा को बढ़ाने के लिये राजनीति भी एक उपयोगी साधन है। इस समय हम सबको क्या चाहिये ? जिसके हों ऊंचे विचार पक्के मन सूबे । जो होवे गम्भीर भीर के परे न ऊबे ॥ हमें चाहिये आत्मत्यागरत ऐसा नेता । रहें लोकहित में जिसके रोये तक डूबे ॥1॥ नैतिक शिक्षा अत्यावश्यक मानव के अन्तर और बाह्य जीवन को पवित्र बनाने के लिए नैतिक (धार्मिक) शिक्षा की अति आवश्यकता है । यह शिक्षा सुयोग्य गुरू के बिना होना असंभव है। इसलिए योग्य गुरू के निकट मानव को विद्याभ्यास करना चाहिए। मानव का सर्वप्रथम गुरू माता है जो कि बालक को गर्भ की अवस्था से ही शिक्षा प्रदान करती है। माता जैसा भोजन करे, बालक पर भी वैसा प्रभाव होता है। अतिगर्म, मिर्च आदि से चटपटे, प्रकृति के प्रतिकूल और मादक भोजन से गर्भस्थ शिशु को कष्ट होता है। इसलिए माता को शुद्ध, ताजा, अनुकूल सात्त्विक भोजन करना आवश्यक है। माता के भोजनांश से शिशु का शरीर पुष्ट होता है। (352 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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