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________________ कृतित्व/हिन्दी सेवा का महत्त्व सेवा शब्द के कहने या सुनने से सहसा मानव चौंक पड़ते हैं कि अरे "गुलामी " ? नौकरी ? जब कोई व्यक्ति किसी से यह कहता है कि तुम सेवा करो, तो वह उसको कड़े शब्दों में कहता है - "हम एक इज्जतदार मी आदमी हैं, हम से गुलामी की कहते हो ? सेवा करके हम अपनी इज्जत धूल में नहीं मिला सकते।” एक समय किसी युवक ने अपने पड़ोसी से कहा कि तुम बड़े अच्छे सेवक हो, तो वह आग बबूला हो गया और बोला कि “तुम गुलाम और तुम्हारे बाप गुलाम, हमसे ऐसी बातें न किया करो।" उस व्यक्ति को इस बात का दुख हुआ कि इसने सेवा और सेवक के अर्थ को नहीं समझा है, इसलिए इतना उखड़ता है | जब उसने उस व्यक्ति को सेवा का अर्थ और महत्व समझाया । सेवा शब्द सुनकर इतना उखड़ने तथा ताव कसने की जरूरत नहीं है। पर उसको बुद्धि से समझने की जरूरत है । साहित्यग्रन्थों में या अन्यग्रन्थों में सेवा शब्द के अनेक अर्थ विवक्षावश क्यों न दर्शाये गये हों पर सेवा शब्द का प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण अर्थ उपकार, उपग्रह या भलाई ही प्रसिद्ध है। दूसरे शब्दों में संगति करना, अच्छे कर्तव्यों का मनसा वाचाकर्मणा आचरण करना, भक्ति करना, गुणों का स्मरण करना, प्रशंसा करना आदि कर्त्तव्य सेवा के विशाल क्षेत्र में अन्तर्गत हो जाते है । व्याकरण में भज् धातु का अर्थ सेवा कहा गया है जिसके प्रयोग अनेक अर्थो में मिलते है। जैसे 'हरि भजति' अर्थात ईश्वर की भक्ति करता है । साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ ‘त्रिवर्ग भजन्‘= धर्म अर्थ काम पुरुषार्थ का आचरण करने वाला । 'ईश्वरं गुरुं च भजस्व' = ईश्वर की उपासना करो। और गुरू की सेवा तथा विनय करो । श्रावक के अतिथि संविभाग या वैयावृत्य नामक व्रत भी सेवा का अर्थ ध्वनित होता है। श्री आचार्य समन्तभद्रजी ने कहा है - व्यापत्ति व्यपनोदः पदयोः संवाहनं च गुणरागात । वैयावृत्त्यं यावानुपग्रहोऽन्योपि संयमि नाम् ॥1॥ (रत्नकरण्ड श्रावकाचार श्लोक 112) अर्थ- भक्ति पूर्वक संयमी पुरूषों की विपत्तियों को दूर करना, शारीरिक सेवा करना, रक्षा करन आदि उपकार करना वैयावृत्त्य है । सेवा शब्द से दान अर्थ भी ध्वनित होता है इसका प्रमाण भी देखिये - दानं वैयावृत्त्यं धर्माय तपोधनाय गुणनिधये । अनपेक्षितोप चारो पक्रियमगृहाय विभवैन ॥ 2 ॥ ( रत्नकाण्ड श्रा. श्लोक 11) भावार्थ - गुणी धर्मात्मा व्यक्तियों को स्वार्थ की भावना के बिना भक्तिपूर्वक भोजन आदि वस्तुओं को प्रदान करना वैयावृत्त्य है । जैन धर्म में चार दत्ति का विधान भी सेवा के लिये ही है इनसे गृहस्थों का और महात्माओं का भला Jain Education International 350 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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