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________________ कृतित्व / हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ शंभु छन्द में निबद्ध इस पद्य में विधानविधात्री माता जी ने ग्रन्थरचना का कारण ओर कारण का कारण भी स्पष्ट लिख दिया है । अर्थात् प्रथम अंतरंग कारण है अकृत्रिम एवं कृत्रिम चैत्य - चैत्यालयों का विशुद्धभावपूर्वक दर्शन-वंदन - पूजन - नमन है । वीतराग परमात्मा की भक्तिगंगा में कर्ममल का प्रक्षालन शुद्धात्मसुधारस का पान और शुद्ध चैतन्य चिंतामणि को प्राप्त करना । द्वितीय बहिरंग कारण ग्रन्थ की रचना कर प्राणियों का कल्याण करना । इस पद्य में कारणमाला एवं रूपकालंकार की संसृष्टि से और प्रसाद गुण, पांचलीरीति, सिद्धिलक्षण, भारतीवृत्ति इस काव्य की सामग्री से शांत सुधारस का शीतल प्रवाह भक्तजनों को आनंदित करता है । पूजा नं. 1 - णमोकार महामंत्रपूजा की जयमाला का 9 वाँ पद्य : , इस मंत्र के प्रभाव श्वान देव हो गया इस मंत्र से अनंत का उद्धार हो गया । इस मंत्र की महिमा को कोई गा नहीं सके, इसमें अनंत शक्ति पार पा नहीं सके | दीनबंधु की चाल में निबद्ध इस पद्य में महामंत्र की महिमा का वर्णन किया गया है । उदात्तालंकार ने - इसकी महिला को उदात्त रमणीय बना दिया है। भारतीवृत्ति, वैदर्भीरीति कार्यलक्षण, प्रसादगुण के आलोक में शांतरस की शीतल वृष्टि इस पद्य उद्यान में की गई है । पूजा नं. 61, नव अनुदिश जिनालय पूजा, जयमाला पद्य - · 6 वाँ :सोहं शुद्धोहं सिद्धोहं, चिन्मय चिंतामणि रूपोहं, नित्योहं ज्ञानस्वरूपोहं, आनंत्यचतुष्टय रूपोहं । मैं नित्य निरंजन परमात्मा का ध्यान करूं गुणगान करूं, सोहं सोहं रटते रटते, परमात्म अवस्था प्राप्त करूं ॥ यह पद्य शंभुछन्द में निबद्ध होकर भी शुद्धात्मा का अबद्धरूप से आख्यान करता है । आत्मा से परमात्मा बन जाने का यह सहज ही मार्ग दर्शाता है। स्वभावोक्ति अलंकार आत्मा को स्वभाव से ही अलंकृत करता है। समता और समाधिगुण शब्दार्थ चमत्कार है। लाटी या रीति शब्दों की क्लिष्टता को दर्शाती है । निरूक्त लक्षण शब्दों की निरुक्ति का कथन करती है और भारतीवृत्ति भारत में भारतीयों को शांत एवं वीररस का संदेश दे रही है। इन उद्धरणों से यह प्रतीत होता है कि माताजी की काव्य शक्ति प्रतिभा सम्पन्न है । वस्तुतः वे विधान काव्य की विधात्री स्मरणीय है । प्रत्येक पूजा के अंत में आशीर्वाद पद्य, पुष्पांजलि पद्य और शांतिधारा पद्य सप्रयोजन कथित है। आप संस्कृत साहित्य की भी विदुषी होकर संस्कृतकाव्य का सृजन करती है। इस विधान में प्रारंभ मंगलरूप में संस्कृत मंगलाष्टक स्तोत्र और चैत्यभक्ति का दर्शन आप ने कराया है। अन्य पूजा विधानों में भी आर्यिका जननी ने भाषा जननी में काव्यों एवं स्तोत्रों की रचना कर विद्वानों का मानस प्रमुदित किया है। तीनों विधानों के अंत में कु. माधुरी शास्त्री द्वारा (वर्तमान में श्री आ. चंदनामती) आरती एवं भजन माध्यम से स्वकी मधुर भक्तिभाव दर्शाया गया है । 346 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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