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________________ कृतित्व/हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ लेकर ही आचार्य पद पर आत्मसाधना करने लगे। इसी प्रसंग में श्री कुमुदचंद्र आचार्य ने कल्याणमंदिर स्तोत्र की रचना करते हुए भ. पार्श्वनाथ का स्तवन किया हैं। इस स्तोत्र में अर्थगाम्भीर्य और अलंकारों की छटा से भक्तिरस की अनुपम एवं आनंदपद धारा प्रवाहित की गयी है। उदाहरणार्थ एक मनोहर पद्य को अन्वयार्थ तथा भावार्थ सहित प्रस्तुत किया जाता है - विश्वेश्वरोऽपि जनपालक ! दुर्गतस्त्वं किं वाक्षरप्रकृति रप्यलिपिस्त्वमीश ! अज्ञानवत्यपि सदैव कथंचिदेव ज्ञानं त्वयि स्फुरति विश्वविकासहेतु ॥30॥ अन्वयार्थ - (जनपालक !) हे जीवो के रक्षक ! (त्वं) आप (विश्वेश्वर: अपि दुर्गत:) तीनलोक के स्वामी होकर भी दरिद्र हैं। (किंवा) और (अक्षर प्रकृति: अपि त्वं अलिपिः) अक्षर स्वभाव होकर भी लेखन क्रिया से रहित हैं (ईश) हे स्वामिन् ! (कथंचित्) किसी प्रकार से (अज्ञानवति अपि त्वयि) अज्ञानवान होने पर भी आप में विश्व विकास हेतु (ज्ञानं सदा एवं स्फुरति) सब पदार्थो को प्रकाशित करने वाला ज्ञानहमेशा स्फुरायमान रहता है। भावार्थ - इस श्लोक में विरोधाभास अलंकार है, विरोधाभास अलंकार में शब्द के सुनते समय तो विरोध मालूम होता है पर अर्थ विचारने पर बाद में उसका परिहार हो जाता है । जहाँ इस अलंकार का मूल कारण श्लेष होता है, वहाँ बहुत ही अधिक चमत्कार पैदा होता है। देखिये विरोध का परिहार इस प्रकार है - भगवान् ! आप विश्वेश्वर होकर भी दुर्गत (दरिद्र) हैं, यह पूरा विरोध है भला जो जगत् का ईश्वर है वह दरिद्र कैसे हो सकता है। इसका निराकरण है कि आप विश्वेश्वर होकर भी दुर्गत हैं अर्थात् कठिनाई से जाने जा सकते हैं। इसी प्रकार आप अक्षर प्रकृति अर्थात अक्षर स्वभाव वाले होकर भी, अलिपि हैं अर्थात लिखे नहीं जा सकते हैं यह विरोध है परन्तु दोनों शब्दों का श्लेष विरोध को दूर कर देता है कि आप अक्षर प्रकृति अर्थात अविनाशीस्वभाव वाले होकर भी अलिपि अर्थात आकार रहित (निराकार) हैं। इसी प्रकार अज्ञानति अपि अर्थात् अज्ञानयुक्त होने पर भी आपमें विश्वविकास हेतु ज्ञानं स्फुरति अर्थात संसार प्रकाशक ज्ञान स्फुरायमान होता है । यह विरोध है कि जो अज्ञानयुक्त है उसमें पदार्थो का ज्ञान कैसे हो सकता है। पर इसका भी नीचे लिखे अनुसार परिहार हो जाता है कि अज्ञान अवति अपि त्वयि अर्थात् अज्ञानी मनुष्यों की रक्षा करने वाले आपमें हमेशा केवल ज्ञान जगमगाता रहता है। (3) एकीभाव स्तोत्र के प्रणेता श्री वादिराज मुनिराज हैं। आप संस्कृत व्याकरण न्याय और साहित्य के परमवेत्ता होने के साथ अध्यात्म विषय के भी पारगामी बिद्वान् थे । स्तोत्र के नाम से अध्यात्म रस झलकता है। तपस्या करते हुए आपको कुष्ठ की बाधा हो गई थी। इसी समय में एकीभाव स्तोत्र रचना करते समय भावों की विशुद्धि के कारण पुण्ययोग से कुष्ठ की बाधा नष्ट होकर सुन्दर शरीर हो गया था। इसी तात्पर्य का प्रतिपादक एक पद्य उदाहरणार्थ - -339) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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