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________________ कृतित्व / हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ अनन्तवें भाग का भाग देने पर जो द्रव्य बचता है उसे जघन्य विपुलमति जानता है। विस्रसोपचय रहित आठ कर्मो के समयप्रबद्ध का जो प्रमाण है उसमें एक उसमें एक बार ध्रुवहार का भाग देने पर जो लब्ध आता है उतना विपुलमतिके द्वितीय द्रव्य का प्रमाण है उस द्वितीय द्रव्य के प्रमाण में असंख्यात कल्पों के जितने समय हैं उतनी वार ध्रुवहार का भाग देने से जो शेष रहता है वह विपुलमति का उत्कृष्ट द्रव्य है । क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य ऋजुमतिज्ञान दो तीन कोश और उत्कृष्ट ऋजुमतिज्ञान सात आठ योजन की बात जानता है । जघन्य विपुलमति मन:पर्ययज्ञान आठ नौ योजन और उत्कृष्ट विपुलमति ज्ञान पैंतालीस लाख योजन विस्तृत क्षेत्र की बात को जानता है। काल की अपेक्षा जघन्य ऋजुमतिज्ञान दो तीन भव और उत्कृष्ट ऋजुमति ज्ञान सात आठ भव की बात जानता है । जघन्य विपुलमतिज्ञान आठ नौ भव और उत्कृष्ट विपुलमति ज्ञान पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल की बात जानता है। भाव की अपेक्षा यद्यपि ऋजुमति का जघन्य और उत्कृष्ट विषय आवलि के असंख्यातवें भाग प्रमाण है तो भी जघन्य प्रमाण से उत्कृष्ट प्रमाण असंख्यातगुणा है। विपुलमतिका जघन्य प्रमाण ऋजुमति के उत्कृष्ट विषयसे असंख्यातगुणा है, और उत्कृष्ट विषय असंख्यात लोक प्रमाण है। जो समस्त लोकालोक और तीन काल की बात को स्पष्ट जानता है उसे केवलज्ञान कहते हैं। यह केवलज्ञान, ज्ञानगुण की सर्वोत्कृष्ट पर्याय है । उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि ज्ञानमार्गणा के कुम कुश्रुत, कुअवधि, सुमति, सुश्रुत, सुअवधि, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान इस प्रकार आठ भेद हैं। कुमति, कुश्रुत और कुअवधि मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में होते हैं। सुमति, सुश्रुत और सुअवधि चतुर्थ से लेकर बारहवें गुणस्थान तक होते हैं । मन:पर्यय ज्ञान छठवें से लेकर बारहवें गुणस्थान तक तथा केवलज्ञान तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में होता है । संयम मार्गणा - अहिंसा आदि पाँच महाव्रतों का धारण करना, ईर्या आदि पाँच समितियों का पालन करना, क्रोधादि कषायों का निग्रह करना, मन वचन काय की प्रवृत्तिरूप दण्डों का त्याग करना और स्पर्शनादि पाँच इन्द्रियों का वश करना संयम है। संयम शब्द की निष्पत्ति सम् उपसर्ग पूर्वक 'यम उपरमे ' धातु से हुई है जिसका अर्थ होता है अच्छी तरह से रोकना । कषाय से इच्छा होती है और इच्छा से मन वचन काय तथा इन्द्रियों की विषयों में प्रवृत्ति होती है। विषयों की तीव्र लालसा के कारण प्रमाद होता है और उनकी प्राप्ति में बाधक कारण उपस्थित होने पर क्रोधादि कषाय उत्पन्न होते हैं इसलिए सर्वप्रथम कषाय पर विजय प्राप्त करने का पुरुषार्थ करना चाहिए । संयम मार्गणा के निम्नलिखित सात भेद हैं (1) सामायिक (2) छेदोपस्थापना (3) परिहारविशुद्धि ( 4 ) सूक्ष्मसाम्पराय, (5) यथाख्यात (6) देशसंयम ( 7 ) असंयम । करणानुयोग में मिथ्यात्व, अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, और प्रत्याख्यानावरण कषाय का अभाव होने पर तथा संज्वलन का उदय रहने पर संयम की प्राप्ति बतलाई गई है। सामान्यरूप से संग्रह नय की अपेक्षा 'मैं' समस्त पापकार्यो का त्यागी हूँ' इस प्रकार की प्रतिज्ञा पूर्वक जो समस्त पापों का त्याग किया जाता है उसे सामायिक कहते हैं। यह संयम अनुपम तथा अत्यन्त दुष्कर है । 'छेदेन उपस्थापना छेदोपस्थापना' इस व्युत्पत्ति के अनुसार हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँच पापों का पृथक् पृथक् विकल्प 321 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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