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________________ कृतित्व/हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ पंचेन्द्रिय पर्याप्तक और संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक ये दो जीव समास होते है। भोगभूमिज मनुष्य के प्रारंभ के चार गुणस्थान तक हो सकते हैं और कर्म भूमिज मनुष्य के चौदहों गुणस्थान हो सकते हैं। संसार सन्तति छेद कर मोक्ष प्राप्त कराने की योग्यता इसी गति में है इसलिए इसका महत्व सर्वोपरि है। मनुष्य की जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट आयु तीन पल्य की होती है। कर्म भूमिज मनुष्य की उत्कृष्ट स्थिति एक करोड़ वर्ष पूर्व की होती है। देवगति - देवगति नाम कर्म के उदय से जो अवस्था प्राप्त होती है उसे देवगति कहते हैं । 'दीव्यन्ति यथेच्छं क्रीडन्ति द्वीप समुद्रादिषु ये ते देवाः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो इच्छानुसार द्वीप समुद्र आदि में क्रीड़ा करते हैं वे देव कहलाते हैं यह देव शब्द का निरुक्त अर्थ है । देवों के चार निकाय हैं - 1. भवनवासी,2. व्यन्तर,3. ज्योतिष्क और 4. वैमानिक । भवनवासियों के असुर कुमार आदि दश, व्यन्तरों के किन्नर आदि आठ, ज्योतिष्कों के सूर्य आदि पाँच और वैमानिकों के बारह इन्द्रों की अपेक्षा बारह भेद हैं। भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिष्क ये तीन देव भवनत्रिक के नाम से प्रसिद्ध हैं। इनमें सम्यग्दृष्टि जीव की उत्पत्ति नहीं होती। वैमानिक देवों के कल्पवासी और कल्पातीत की अपेक्षा दो भेद भी हैं । सोलहवें स्वर्ग तक के देव कल्पवासी और उसके आगे नौ ग्रैवेयक, नौ अनुदिश तथा पाँच अनुत्तरवासी देव कल्पातीत कहलाते हैं। जिनमें इन्द्र सामानिक आदि दश भेदों की कल्पना होती है वे कल्पवासी कहलाते हैं और जिनमें यह कल्पना नहीं होती वे कल्पातीत कहे जाते हैं। देवों के संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक और संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक ये दो जीव समास होते हैं । इनके प्रारंभ के चार गुणस्थान होते हैं। हंस, परम हंस आदि मन्द कषायी अन्य मतावलम्बियों की उत्पत्ति बारहवें स्वर्ग तक होती है। पाँच अणुव्रतों को धारण करने वाले गृहस्थ सोलहवें स्वर्ग तक उत्पन्न होते हैं। द्रव्यलिंगी - मिथ्यादृष्टि मुनियों की उत्पत्ति नौवें ग्रैवेयक तक हो सकती है उसके आगे सम्यग्दृष्टि मुनियों की ही उत्पत्ति होती है । अनुदिश तथा अनुत्तरवासी देव अधिक से अधिक मनुष्य के दो भव लेकर मोक्ष चले जाते हैं । अनुत्तरों में सर्वार्थसिद्धि के देव, पाँचवें स्वर्ग के अंत में रहने वाले लौकान्तिक देव, सौधर्मेन्द्र, उसकी शची नामक इन्द्राणी और दक्षिण दिशा के लोकपाल ये सब एक भवावतारी होते हैं। मिथ्यादृष्टि देव स्वर्ग की विभूति पाकर उसमें तन्मय हो जाते हैं, परन्तु सम्यग्दृष्टि देव अन्तरंग से विरक्त रहकर कर्म भूमिज मनुष्य पर्याय की वांछा करते हैं और यह भावना रखते हैं कि हम सब मनुष्य होकर तपश्चरण करें तथा अष्ट कर्मो का नाशकर मोक्ष प्राप्त करें। चारों निकाय के देवों की आयु विभिन्न प्रकार की है। संक्षेप में सामान्य रूप से देवगति की जघन्य आयु दश हजार वर्ष की और उत्कृष्ट तेतीस सागर की है। इन्द्रिय मार्गणा - इन्द्र आत्मा की जिनसे पहिचान हो उसे इन्द्रिय कहते हैं । अथवा जो अपने स्पर्शादि विषयों को ग्रहण करने के लिए इन्द्र के समान स्वतंत्र हैं किसी दूसरी इन्द्रिय की अपेक्षा नहीं रखती उन्हें इन्द्रिय कहते हैं। -313 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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