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________________ कृतित्व/हिन्दी प्रध्वस्तघातिकर्माणः केवलज्ञानभास्करा : । कुर्वन्तु जगत: शांतिं वृषभाद्या जिनेश्वरा: ॥ 8 ॥ शा० पा० अर्थात् कर्म मल रहित, केवल ज्ञान से तेजस्वी, ऋषभदेव आदि चौबीस तीर्थंकर विश्व को शान्ति प्रदान करें । धार्मिकता और राष्ट्रीयता के सामंजस्य के विषय में वैदिक ग्रन्थों का समर्थन निम्न प्रकार है - प्रहृष्टमुदितो लोकस्तुष्टः पुष्टः सुधार्मिकः । निरामयो ह्यरोगश्च दुर्भिक्षभयवर्जितः ॥ नगराणि च राष्ट्राणि धनधान्ययुतानि च । नित्यं प्रमुदिताः सर्वे यथा कृतयुगे तथा ॥ मूल रामायण श्लो० 90-93 सारांश - श्री रामचन्द्र के राज्य में मानव हृष्ट पुष्ट सन्तुष्ट धर्मात्मा मानसिक तथा शारीरिक रोगों से रहित और अकाल के भय से रहित थे । ग्राम, नगर और राष्ट्र धन धान्य आदि से परिपूर्ण थे । सब प्राणी सत्य युग के समान त्रेतायुग में भी आनन्दित थे । शीलेन हि त्रयो लोका: शक्या जेतुं न संशयः । न हि किंचिदसाध्यं वै, लोके शीलवतां भवेत् ॥ 15 ॥ एकरात्रेण मान्धाता, त्र्यहेण जनमेजय: । सप्तरात्रेण नाभागः पृथिवीं प्रतिपेदिरे ।। 16|| एते हि पार्थिवास्सर्वे, शीलवन्तो दयान्विता । अस्तेषां गुणक्रीता वसुधा स्वयमागता ||17 ॥ महाभारत, शीलनिरुपणाध्याय भावार्थ- शील (श्रेष्ठ स्वभाव, अहिंसा, आदि) से तीन लोक के राज्य पर भी विजय प्राप्त हो सकती है, इसमें कोई सन्देह नहीं है । शीलवान् पुरुषों को लोक में कोई वस्तु या कार्य असाध्य नहीं हैं । राजा मान्धाता ने एक दिन में, जनमेजय राजा ने तीन दिन में और नाभाग नृप ने सात दिन में पृथिवी का राज्य प्राप्त कर लिया था। ये सब राजा शीलवान् और दयालु थे इसलिये अपने गुणों के द्वारा उन्होंने पृथिवी का राज्य विशेष प्रयत्न के बिना ही प्राप्त कर लिया था । साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ प्रजानां विनयाधानाद् रक्षणाद् भरणादपि । स पिता पितरस्तासां केवलं जन्महेतवः ॥ स्थित्यैर्दण्डयतो दण्ड्यान् परिणेतुः प्रसूतये । अप्यर्थकामौ तस्यास्तां धर्म एव मनीषिण: ॥ रघुवंश प्र० स० श्लो0 24-25 अर्थात् - प्रजा को नम्रता सदाचार आदि की शिक्षा देने से, आपत्तियों से रक्षा करने से और अन्नजल आदि के द्वारा पालन करने से राजा दिलीप ही वास्तव में प्रजा का पिता था । प्रजा के पिता तो केवल जन्मदाता ही थे। Jain Education International 299 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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