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________________ कृतित्व/हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ तात्पर्य: - भूतबलि आचार्य ने अंकलेश्वर (गुजरात) में ही वीर निर्वाण सं. 723 वि.स. 240, ई. सं. 163 में, ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी के शुभ दिन में, षट्खण्डागम की शब्दात्मक रचना को पूर्णकर, चतुर्विध संघ (मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका) के साथ षट्खण्डागम को ज्ञान का उपकरण मानते हुए श्रुतज्ञान का पूजन समारोह पूर्वक किया, जिससे श्रुतपंचमी पर्व की परम्परा जैन समाज में आज भी प्रचलित है । पश्चात् भूतबलि आचार्य ने उस षट्खण्डागम महाशास्त्र को जिनपालितशिष्य के द्वारा पुष्पदन्त गुरू के पास भेज दिया । पुष्पदन्त आचार्य ने अपने मनोरथ के अनुसार उसको पूर्ण देखकर अतिप्रमोद के साथ चार संघ के सहयोग से सिद्धान्त शास्त्र अर्चन भी किया। दक्षिण भारत के वे वेणाकतटीपुर- महिमानगरी से संयोजित विशाल मुनिसम्मेलन में एक संस्कृत भाषा में लिखित पत्र को धरसेनाचार्य ने एक ब्रहृमचारी सज्जन के माध्यम से भेजा। वह पत्र इस प्रकार है - "स्वस्ति श्रीमत इत्यूर्जयन्ततट निकट चन्द्रगुहावासद् धरसेनगणी वेणाकतट समुदितयतीन् अभिवयं कार्य मेवं निगद त्यस्माकमायुखशिष्टं स्वल्पं, तस्मादस्मच्छूतस्य शास्त्रस्य च व्युच्छित्त: न स्याद यथा, तथा द्वौ यतीश्वरौ ग्रहणधारण समथौ निशितप्रज्ञौयूयं प्रस्थापयत इति । धरसेनाचार्य: तात्पर्य - आप सब का कल्याण हो- इस प्रकार कहते हुए, गिरनान तट निकट चन्द्रगुफा का वासी धरसेनाचार्य वेणाकतटी पुर में सम्मिलित मुनीश्वरों का अभिवन्दन कर इस कार्य को स्पष्ट कहते हैं कि हमारी आयु अति अल्प अवशिष्ट है। इस कारण आचार्य परम्परा से समागत अपने भावश्रुत और द्रव्यश्रुत का विच्छेद जिस किसी प्रकार से न हो, उस प्रकार ज्ञान को ग्रहण करने और धारण करने में समर्थ, तीक्ष्णबुद्धि दो मुनीश्वरों को आप भेजने का प्रयास करें। धरसेनाचार्य : (श्री 108 आर्यनन्दी मुनिराज की डायरी से प्राप्त और मुनिराज द्वारा दक्षिण के किसी जैन मन्दिर के शास्त्र भण्डार से प्राप्त) इस प्रकार श्रुतपंचमी पर्व का इतिहास महत्वपूर्ण, प्रभावक और श्रुतज्ञान के अभ्यास से प्रेरणाप्रद है । इसलिये समस्त श्रीमानों, धीमानों और समाज को श्रुतज्ञान की परम्परा को भविष्य में चलाने के लिये प्रसार एवं प्रचार करना आवश्यक है। इस समय श्रुतज्ञान की उन्नति के लिये महाविद्यालय एवं संस्कृत प्राकृत, हिन्दी एवं अन्य भाषाओं में श्रुतज्ञान के विकास के लिये परीक्षा कोई अध्यापक, छात्र और संचालक मनसा वाचा कर्मणा पुरुषार्थ करें। श्रुतेभक्ति: श्रुतेभक्तिः श्रुते भक्ति: सदास्तु मे। सज्ज्ञानमेव संसारवारणं मोक्षकारणम् ॥ (289) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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