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________________ कृतित्व / हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ तात्पर्य : उक्त पांच प्रकार का ज्ञान प्रमाण ( वास्तविक) है। उनमें श्रुतज्ञान स्वार्थ (ज्ञानात्मक) है। और परार्थ (शब्दात्मक) भी है। शेष चार ज्ञान स्वार्थ ही हैं परार्थ नहीं हैं । ज्ञानात्मक स्वार्थ प्रमाण और वचनात्मक परार्थ प्रमाण कहा जाता है। इनके भेद नयरूप हो जाते हैं। स्पष्ट यह है कि श्रुतज्ञान में ही पदार्थ को जानने की शक्ति है और पदार्थ के स्वरूप को कहने की शक्ति भी है। शेष चार ज्ञानों में केवल पदार्थ को जानने की शक्ति है कथन करने की शक्ति नहीं है । इसलिये तत्व को जानने के लिये, बोलने के लिये और लिखने के लिये श्रुतज्ञान की अत्यन्त आवश्यकता है। यह विशेष है कि अर्हन्त का केवल ज्ञान अक्षर रहित ही पदार्थ का पोषक होता है सातिशय । भगवान महावीर के निर्वाण से 683 वर्ष तक गणधर, उपगणधर, अंगपूर्व ज्ञान धारी आचार्यो के द्वारा ज्ञानात्मक एवं शब्दात्मक श्रुतज्ञान की परम्परा मौखिक रूप से चलती रही, लिपिबद्ध नहीं । भगवान महावीर निर्वाण के प्राय: 723 वर्ष पश्चात् श्रीधरसेन आचार्य ने कलिकाल में श्रुतज्ञान की सुरक्षा हेतु श्रुतज्ञान को जानने तथा बोलने के साथ लिपिबद्ध करने का शुभारंभ किया । जिसका इतिहास षट्खण्डागम जीव काण्डः सत्प्ररूपणा के आधार पर इस प्रकार है : सौराष्ट्र (गुजरात) देश के गिरिनगर ( गिरनार ) की चन्द्रगुफा में तपस्यानिष्ठ, अष्टांगमहानिमित्त विद्या के पारगामी, प्रवचन वत्सल धरसेनाचार्य ने, पंचमकाल में श्रुतज्ञान विच्छेद के भय से महिमानगरी में पंचवर्षीय साधु सम्मेलन में सम्मिलित हुए दक्षिण देश (प्रान्त) के वरिष्ठ आचार्यों के पास संस्कृत में एक पत्र लिखकर भेजा । पत्र में लिखित धरसेनाचार्य के वचनों को गंभीरता से समझकर उन वरिष्ठ आचार्यो ने सिद्धांत को ग्रहण एवं धारण में समर्थनिर्मल एवं उज्जवल विनय से विभूषित, अंगधारी, गुरूओं द्वारा प्रेषणरूप भोजन से सन्तुष्ट, देशकुल जाति से शुद्ध, सकल कलाओं में पारंगत, आचार्यो द्वारा तीन बार प्रदत्त आज्ञा के शिरोधारी ऐसे दो दिगम्बर साधुओं को आन्ध्रदेश में बहने वाली वेणानदी के तटमार्ग से भेजा । मार्ग में उन दोनों साधुओं के आते समय, कुन्द पुष्प, चन्द्र और शंख के समान सफेदवर्ण सहित, शुभ लक्षणों से शोभित, धरसेन की तीन प्रदक्षिणा देने वाले, आचार्य के चरणों में नम्रीभूत दो सुन्दर बैलों को धरसेन भट्टारक रात्रि के अन्तिम भाग में स्वप्न में देखकर प्रसन्न हुए और धरसेनाचार्य ने उसी समय "श्रुत देवता जयताम् (श्रुतज्ञान रूपी देवता जयवंत हो) ऐसा शुभ वाक्य का उच्चारण किया ।" उसी दिन दक्षिण देश से प्रेषित वे दोनों साधु धरसेनाचार्य के समीप आये । धरसेनाचार्य की पाद वन्दना आदि कृति कर्म के पश्चात् दो दिन व्यतीत कर तीसरे दिन उन दोनों साधुओं ने धरसेन से निवेदन किया कि इस विशेष कार्य हेतु हम दोनों आपके पादमूल में आये हुए हैं। उनके निवेदन को सुनकर आचार्य श्रेष्ठ ने शुभ हो कल्याण हो इस प्रकार मंगलाशीष कहते हुए उन दोनों साधुओं के लिये आश्वासन दिया । यद्यपि धरसेनाचार्य ने शुभ स्वप्न देखने मात्र से उन दोनों साधुओं के विशेष गुणों को जान लिया था, तथापि उनकी विशेष परीक्षा लेने हेतु निश्चय किया। कारण कि शिष्य की परीक्षा करने से गुरू के मन में संतोष हो जाता है। पश्चात् धरसेनाचार्य ने परीक्षार्थ उन साधुद्वय को दो विद्याएँ सिद्ध करने के लिये प्रदान की। एक साधु के लिये अधिक अक्षरवाला मंत्र । और दूसरे के लिये कम अक्षर वाला मंत्र विद्या सिद्ध करने के लिये 1 Jain Education International 287 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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