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________________ कृतित्व/हिन्दी (समयसार कलश - 221 ) अर्थात् - जो रागद्वेषादि की उत्पत्ति में परद्रव्य को ही निमित्तैकांत रूप से मानते हैं, शुद्ध ज्ञान नेत्र से ही वे व्यक्ति मोहरूपी नदी को पार नहीं कर सकते हैं अर्थात् वे मिथ्यात्व के पंजे से नहीं छूट सकते हैं। वे केवल ब्राह्यसामग्री में ही उलझे रहेंगे, अपने मुख्य लक्ष्य को प्राप्त नहीं हो सकते । वृत्ति: साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ "रागजन्मनि निमित्ततां परद्रव्यमेव कलयन्ति ये तु ते । उत्तरन्ति न हि मोहवाहिनीं, शुद्धबोधविधुरान्धबुद्धयः ॥" अन्य प्रमाण - श्री समंतभद्राचार्य जी ने निमित्तैकान्त में दोष दर्शाते हुए कहा है। "बहिरङ्गार्थतैकान्ते, प्रमाणाभासनिह्नवात । सर्वेषां कार्यसिद्धि: स्याद, विरूद्धार्थाभिधायिनाम् ॥" “बहिरङ्गार्थतैकान्त: बाह्यार्थे कान्तः तस्मिन्नभ्युपगम्यमाने विरूद्धार्थाभिधायिनां सर्वेषां कार्यसिद्धिः भवेत् प्रमाणाभास निराकरणात् - इत्यादि " (आप्तमीमांसा कारिका 81 वृत्ति सहिता ) अर्थात् - बहिरंगार्थ को एकान्तरूप से मानने पर सब विरूद्ध वस्तुतत्त्व के वक्ताओं के भी उसमें प्रमाणाभास (मिथ्यात्व) के निराकरण से सब कार्यो की सिद्धि हो जाना चाहिए, पर यह देखा नहीं जाता है। इससे सिद्ध है । कि निमित्तैकान्त कार्य के प्रति उपयोगी नहीं है। निमित्तैकान्त के मानने पर मनुष्य का जीवन स्तर उन्नत नहीं हो सकता है । उपादानैकान्त में दोष यदि कोई व्यक्ति निमित्त की उपेक्षा कर उपादानैकान्त में ही अपनी श्रद्धा व्यक्त करता है, उस ही को सर्वशक्तिमान, कार्योपादन में समर्थ, स्वतंत्रोपयोगी सर्वव्यापक मानता है, निमित्त की सत्ता भी नहीं मानता। है तो उसकी यह मान्यता भ्रमपूर्ण है। क्योंकि उपादानैकान्त के मानने में व्यवहार चारित्र, व्रतादि अनुष्ठान, दैनिकचर्या, नैमित्तिकक्रियाकाण्ड और कारण सामग्री के समरंभ समारंभ आरंभ का लोप हो जायेगा । यदि कोई व्यक्ति पढ़ना चाहता है तो उसको निमित्तकारणों के प्रति अपना पौरूष नहीं करना चाहिए, न बाह्यविनय आदि भी करना चाहिए, किन्तु स्वतः ग्रन्थाध्ययनरूप कार्य सिद्ध हो जाना चाहिए, पर यह स्पष्टतया लोक में देखा नहीं जाता है । अत: यह पक्ष भी उपादेय नहीं है । श्रीसमन्तभद्राचार्य ने अंतरङ्गर्थेकान्त के विषय में कहा है“अंतरङ्गार्थतैकान्ते, बुद्धिवाक्यं मृषाऽखिलम् । प्रमाणाभासमेवात - स्तत्प्रमाणदृते कथम् ॥" (आप्तमीमांसा अ. 7 श्लोक 79 सवृत्ति) अर्थात् - अन्तरङ्गार्थ को एकान्ततया मानने पर बाल अर्थ के ज्ञान से पूर्ण बुद्धि तथा अनुमान के 283 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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