SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 330
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कृतित्व/हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ नहीं। इसलिए यह सिद्ध हुआ कि आत्मा उपादान और कर्म के निमित्त से ही यह आत्मा की विकृत दशा को प्राप्त हुआ है। जिसको दूर करने का हम और आप सब ही प्रयत्न करते हैं । उक्तं च - जीवपरिणाम हेर्दू, कम्मत्तं पुग्गला परिणमन्ति ॥ पुग्गलकम्मणिमित्तं, तहेव जीवो वि परिणमदि। (समयसार गाथा नं. 86) इसकी संस्कृत टीका में श्री जय सेनाचार्य जी कहते हैं - “यथा कुम्भकारनिमित्तेन मृत्तिका घटरूपेण परिणमति तथा जीव सम्बन्धि मिथ्यात्वरागादिपरिणाम हेतुं लब्ध्वा कर्मवर्गणायोग्यं पुद्गलद्रव्यं कर्मत्वेन परिणमति । यथैव च घटनिमित्तेन एवंघटं करोमीति कुम्भकार: परिणमति तथैवोदयागत पुद्गलकर्म हेतुं कृत्वा जीवोऽपि निर्विकार चित्चमत्कार परिणति मलभयान: सन् मिथ्यात्वरागादि विभावेन परिणमतीति" (समयसार - गाथा 80 संस्कृतर्यका) उक्त उद्धहरण से यह सिद्ध हो जाता है कि जैसे कुम्भकार आदि निमित्त से मिट्टी घटरूप हो जाती है उसी प्रकार रागादिपरिणामों से कर्मवर्गणा ज्ञानावरणादि रूप परिणत हो जाती है और उनके निमित्त से आत्मा में भी विकार हो जाता है। इससे कारणद्वय की सिद्धि होती है। अपि च - "आस्तां घात: प्रदेशेषु संदृष्टे रूप लब्धित: ॥ वातव्याधेर्यथाध्यक्षं पीडयन्ते ननु सन्धयः ॥" (पंचाध्यायी अ. 2, श्लोक 249) अर्थात् - जैसे वातरोग के हो जाने पर सन्धि सन्धि में प्रत्यक्ष पीड़ा होती है वैसे ही कर्मरोग के निमित्त से जीव के प्रदेशों में विकार तो होता ही है साथ ही दुःखानुभव भी होता है । यहाँ पर उपादान और निमित्त की क्रिया सिद्ध होती है। अन्य प्रमाण - नैमित्तिक क्रिया या व्रतादि अनुष्ठानों द्वारा भी आत्मा पर बहुत प्रभाव पड़ता है इसीलिये व्यवहार चारित्र या अर्चा आदि अनुष्ठानों को व्यर्थ नहीं कहा जा सकता है । श्री आचार्य कल्प पण्डित प्रवर आशा धर जी ने कहा है - पञ्चम्यादिविधिं कृत्वा, शिवान्ताभ्युदयप्रदम् ॥ उद्योतयेद्यथा सम्पन्निमित्ते प्रोत्सहेन्मन: ॥ अर्थात् - श्रावक मोक्ष पर्यन्त इन्द्रादिपदों के दाता पञ्चमी, पुष्पाञ्जलि , मुक्तावली, रत्नत्रयादि ब्रतविधानों को शास्त्रानुसार करके स्वद्रव्य के अनुसार उनका उद्यापन करावे। क्योंकि दैनिक क्रियाओं को करने की अपेक्षा नैमित्तिक क्रियाओं के करने में मन अधिक उत्साहित होता है। (सागार धर्मामृत अ. 2 श्लोक 78) इससे सिद्ध है कि ग्रहस्थधर्म में भी आत्मोन्नति के लिए उपादान कारण आत्मा और निमित्तकारण (281) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy