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________________ कृतित्व/हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ कहना अथवा भविष्य में डाक्टर होने वाले एम.बी.बी.एस. कक्षा के छात्र को वर्तमान में डाक्टर कहना। (4) भावनिक्षेप - जिसनय की अपेक्षा से मनुष्य की वर्तमान पर्याय (दशा) का कथन किया जाए, जैसे वर्तमान में राष्टपति को राष्ट्रपति कहना । शिक्षक को शिक्षक कहना आदि। इस प्रकार 50 नयों के भेद प्रभेद और उनके प्रयोगों का वर्णन किया गया । मानव अपने जीवन में आवश्यकता के अनुसार यदि इन नयों का प्रयोग न करे तो जीवन इष्ट लक्ष्य की सिद्धि न होने से अपूर्ण अशांत और निर्वाह शून्य हो जायेगा । जो नय एकांत पक्ष का आश्रय लेते हैं तथा परस्पर निर्पेक्ष होते हैं वे नय नहीं, अपितु नयाभास (असत्यनय) हैं उनसे लोक में इष्ट प्रयोजन की सिद्धि नहीं हो सकती। जैसे वस्त्र के तंतु परस्पर सापेक्ष न हों, पृथक् - पृथक् रख दिये जायें तो उनसे शीत निवारण, शरीर रक्षा आदि इष्ट कार्य नहीं हो सकते । आचार्यो का दार्शनिक युक्तिपूर्ण कथन है। मिथ्यासमूहो मिथ्याचैन्न मिथ्यैकान्त तास्ति नः । निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तुतोर्थकृत ॥ सारांश - यदि एक पक्षीय मिथ्या एकांत नयों का समूह अनेकांत का अर्थ माना जाए तो वह अनेकान्त भी मिथ्या है। कारण कि जैन दर्शन में एकांत पक्ष रूप से नयो में असत्यता भी नहीं है। किन्तु जो नय परस्पर सापेक्ष हैं वे अच्छी तरह उपयोगी तथा सत्य है । और जो नय निरपेक्ष है वे नय नहीं अपितु नयाभास हैं वे इष्टकार्य को सिद्ध करने के लिए समर्थ नहीं हो सकते, अत: मिथ्या है। सारांश एवं उपसंहार - उक्त कथन से यह सिद्ध हो गया कि प्रमाण और नयों के द्वारा पदार्थ का विज्ञान होता है । कारण कि अनंत धर्मो की सत्ता प्रत्येक वस्तु में विद्यमान है। उनमें किसी नय शैली से निश्चय वयवहार नित्य - अनित्य, एक अनेक, बन्ध - मोक्ष, द्रव्य - भाव, शुद्ध - अशुद्ध, सत् -असत्, सामान्य विशेष, मूर्त - अमूर्त, गुण - गुणी, निमित्त - उपादान इत्यादि तत्वों का उपयोगी एवं वैज्ञानिक समंवय किया गया है। यदि जीवन में आत्म कल्याण की इच्छा है तो मानव को स्याद्वाद की रीति से समंवय के मार्ग पर चलना नितांत आवश्यक है। नय वाद जैन दर्शन का वैज्ञानिक अनुसंधान है। (269 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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