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________________ कृतित्व/हिन्दी "जो जीव भूतार्थ के आश्रित हैं वह जीव निश्चयकर सम्यग्दृष्टि हैं " । इसका भाव यही है कि सम्यग्दृष्टि जीव निश्चयनय के विषय को लक्ष्य में रखते हैं तथा अनुकूल व्यवहार विषय का आचरण करते हैं अन्यथा सम्यग्दृष्टि निष्क्रिय हो जायेगा औरे व्यवहार निष्फल हो जायेगा। सम्यग्दृष्टियों का पूर्ण शुद्धस्वभाव को प्राप्त करना ही, निश्चय के विषय को साक्षात् आश्रित हो जाना है । प्रश्न - असत्यार्थ व्यवहारनय को क्या झूठपाप कहा जा सकता है ? साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ उत्तर - कभी नहीं, असत्यार्थ - व्यवहारनय के विषय को झूठपाप कहना नितांत भूल होगी। कारण कि व्यवहार का विषय असत्य के लक्षण से भिन्न है । आ. उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र अ. 7 में असत्य का लक्षण कहा है - 'असदभिधानमनृतम्” अर्थात् - प्रमाद या कषायपूर्ण भावों से स्वपर के द्रव्यप्राण अथवा भावप्राण या दोनों का घात करने वाले वचनों का प्रयोग करना असत्य है, यह असत्य का लक्षण व्यवहार में घटित नहीं होता । अतः व्यवहार को असत्यपाप कहना अज्ञान है कारण कि व्यवहार के प्रयोग से किसी के प्राणों का घात नहीं होता । श्री अमृत चंद्र आचार्य ने पुरूषार्थ सिद्धयुपाय में श्लोक नं. 91 से 100 तक असत्य वचन के भेद कहे हैं- 1. सत्निषेध, 2. असत्यकथन, 3. विपरीत कथन 4. गर्हितवचन, 5. सावद्यवचन, 6. अप्रियवचन, इनमें से किसी भी असत्यवचन का लक्षण, अभूतार्थ व्यवहार में नहीं पाया जाता, अत: उसे असत्यपाप नहीं कहा जा सकता। व्यवहारनय से जो विद्वान अथवा मुनिराज आदि महात्मा उपदेश करते वह सत्य वचन ही है इसी विषय में श्री अमृतचंद्र जी आचार्य ने स्पष्ट श्लोक द्वारा कहा है - - तौ प्रमत्तयोगे निर्दिष्टे सकलवितथवचनानाम् । हेयानुष्ठानादेरनुवदनं भवति नासत्यम् ।। (पुरुषार्थ. श्लोक 100) इसका तात्पर्य यह है असत्यवचन के त्यागी महामुनि या अन्य महात्मा विद्वान हेय तथा उपादेय कर्तव्य के उपदेश आम सभाओं में दृष्टांत सहित करते हैं, पौराणिक चरित्र तथा कथाओं का विविध अलंकारों और नवरसों के साथ वर्णन होते हैं परन्तु वे असत्यवचन नहीं हैं। इसके अतिरिक्त उनके पापनिन्दक वचन, अज्ञानी अत्याचारी पुरूषों को वाण जैसे अप्रिय लगते हैं, सैकड़ों पुरूष चिढ़ते हैं दुखी होते हैं तो भी उन को असत्यपाप का दोष नहीं प्राप्त होता, क्योंकि उनके वचन प्रमाद या कषाय से रहित हैं, इसी से हिंसा तथा असत्य के लक्षण में कहा गया है कि - क्रमश: "प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा, असदभिधानमनृतम्' इति । पण्डित प्रवर आशा धर जी ने सागार धर्मामृतग्रन्थ में वचन के चार भेद कहे हैं - 1. असत्यासत्य - जो वचन हिंसादि पापों को उत्पन्न करें अथवा जो धर्म से विपरीत हो । 2. असत्यसत्य “वस्त्र बुनो," भात पकाओ इत्यादि वचन । 3. सत्यासत्य - किसी वस्तु के कल देने का निश्चय कर दूसरे को दो तीन दिन बाद दे देना, इत्यादि वचन । 4. सत्यसत्य - जो वचन वस्तु का सत्यार्थ कथन करने वाला हो, या स्वपरहितकारक हो । इनमें से अंत के तीन वचनों का प्रयोग व्यवहारनय से गृहस्थ मानव कर सकता है परन्तु असत्यासत्य 259 Jain Education International For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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