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________________ कृतित्व/हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ 'अभेदानुपचारतया वस्तु निश्चीयते इति निश्चय : । भेदोपचारतया वस्तु व्यवहियते इति व्यवहार: ॥ (आलापपद्धति पृ. 126) अर्थात् - निश्चयनय वह है जो अभेद तथा मुख्य दृष्टि से वस्तु का निश्चय करता है जैसे ज्ञानमय आत्मा । व्यवहारनय वह है जो भेद तथा उपचार (गौण दृष्टि) से वस्तु का व्यावहारिक प्रयोग करता है जैसे आत्मा का ज्ञानगुण अथवा जल का कलश इत्यादि। श्रीमत्पण्डितप्रवर आशा धर जी का प्रवचन - कर्ताद्या वस्तुनो भिन्ना, येन निश्चय सिद्धये । साध्यन्ते व्यवहारोसो, निश्चयस्तदभेददृक् ॥ (अनगारधर्मामृत, अ । श्लोक 102) अर्थात् - जो निश्चय स्वरूप की प्राप्ति के लिए, कर्ता कर्म आदि कारकों को जीव आदि द्रव्यों से पृथक् सिद्ध करता है वह व्यवहारनय है और जो नय, कर्ता कर्म आदि कारकों को आत्मा आदि रूप से अभिन्न सिद्ध करता है वह निश्चयनय है। श्री आचार्य कुन्दकुन्द का उपदेश - ववहारो भूदत्थो, भूदत्थो देसिदोदु शुद्धणओं । भुयत्थमस्सिदो खलु, सम्माइट्ठी हवइ जीवो ॥ (समयतार गाधा -13 जीवाजीवाधिकार) सारांश - व्यवहारनय अभूतार्थ (असत्यार्थ) है और निश्चयनय भूतार्थ (सत्यार्थ) है ऐसा मुनिश्वरों ने दिखलाया है । जो जीव भूतार्थ के आश्रित हैं अर्थात् जो रत्नत्रय की पूर्णता को प्राप्त हो चुके हैं, एवं अर्हन्तपद को प्राप्त हैं वे जीव निश्चय कर सम्यग्दृष्टि हैं। लक्षणमेकस्य सतो यथाकथंचित यथा द्विधाकरणम् । व्यवहारस्य तथा स्यात् तदितरधा निश्चयस्य पुन: ॥ (पंचाध्यायी अ. 1 श्लोक 614) सारांश - जिस प्रकार एक सत्स्वरूप वस्तु का, जिस किसी दृष्टिकोण से भेद करना व्यवहारनय का लक्षण कहा जाता है, उसी प्रकार एक सत्स्वरूप द्रव्य का किसी भी दृष्टिकोण से भेद न कर अभेद रूप से ही ग्रहण करना निश्चयनय का लक्षण कहा जाता है। जो सियभेदुवयारं धम्माणं कुणइ एगवत्थुस्स। सो ववहारो भणिओ, विवरीओ णिच्छयो होदि । (नयचक्रगाधा 262) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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