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________________ कृतित्व/हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ जैन दर्शन में नयचक्र का वैज्ञानिक अनुसंधान भारत के प्राय: सब ही दर्शनकारों ने इस मान्यता को प्रमुख स्थान दिया है कि समीचीन वस्तु तत्त्वज्ञान श्रेयस्कर एवं आत्मशुद्धि को करने वाला है, इसके बिना मानव जीवन की यात्रा शान्ति के साथ सम्पन्न नहीं हो सकती। परम सुख शान्ति का मूल कारण यह तत्त्वज्ञान ही हैं। इसी निर्दोष तत्त्वज्ञान को सभी दर्शनकारों ने प्रमाण शब्द से घोषित किया है । दार्शनिक ग्रन्थों में विभिन्न दर्शनवादियों ने, अपनी - अपनी मान्यता के अनुसार प्रमाण के लक्षण और भेदों का प्रणयन किया है । जब किसी भी दर्शनकार से कोई शिष्य प्रश्न करता है कि जगत के पदार्थो की यथार्थ जानकारी किस उपाय से होती है ? तब दर्शनकार उत्तर देता है कि प्रमाण से ही पदार्थो का ज्ञान होता है, प्रमाणाभास से नहीं। उक्तं च "प्रमाणादर्थसंसिद्धि:, तदाभासाद् विपर्यय:"॥ प्रमाण का लक्षण और उसके भेदों को जानने के लिए विभिन्न दर्शनवादियों की प्रमाण विषयक मान्यताएं इस प्रकार हैं :1. चार्वाकदर्शन :- इन्द्रिय प्रत्यक्ष ज्ञान प्रमाण कहा जाता है इस दर्शन में एक ही प्रमाण “प्रत्यक्ष" माना गया है। प्रणेता- बृहस्पति 2. बौद्धदर्शन :- विवाद रहित ज्ञान प्रमाण कहा जाता है। महात्मा बुद्ध । इस दर्शन में दो प्रमाण माने गये है :- 1, प्रत्यक्ष, 2 अनुमान वैशेषिकदर्शन :- इसमें भी दो प्रमाण कहे गये हैं - ईश्वरकर्तावादी कणादमुनिप्रणीत - 1. प्रत्यक्ष प्रमाण, 2. अनुमान प्रमाण 4. सांख्यदर्शन :- इस दर्शन में इन्द्रिय व्यापार को प्रमाण माना है इसके तीन भेद हैं। 1. प्रत्यक्ष, 2. अनुमान, 3. उपमान । इसके दो विभाग 1. निरीश्वर सांख्य दर्शन (कपिलमुनि प्रणीत) 2. ईश्वरवादी सांख्य दर्शन (योगदर्शन) - पतंजलि प्रणीत । 5. नैयायिक दर्शन :- प्रमाक्रिया के प्रति जो करण है वह प्रमाण है । इसके चार भेद हैं। 1. प्रत्यक्ष, 2. अनुमान, 3.उपमान, 4.शाब्द । गौतम ऋषि प्रणीत । (अ) प्राचीननैयायिक :- कारकसाकल्य (कारण सामग्री) को प्रमाण कहते हैं। ये दर्शन वादी भी उक्त चार ही प्रमाण कहते हैं। 6. प्राभाकरदर्शन :- इस दर्शन में आत्मानुभूति को प्रमाण का लक्षण माना गया है, इस प्रमाण के पंचभेद कहे गये हैं - 1. प्रत्यक्ष, 2. अनुमान, 3.उपमान, 4. शाब्द, 5. अर्थापत्ति । 7. भाट्टदर्शन (जैमिनीदर्शन):- इस दर्शन में प्रमाण का लक्षण इस प्रकार है - पूर्व में नहीं जाने गये पदार्थ के यथार्थ निश्चय करने वाले ज्ञान को प्रमाण कहते हैं, इसके छह भेद कहे गये है - 1. प्रत्यक्ष, -2500 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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