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________________ कृतित्व / हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ मान्यता थी :- "जगत के पदार्थ नित्य होते हुए भी आपेक्षिक परिवर्तनशील (अनित्य) है ।" यहाँ पर स्याद्वाद से तुलना की गई है। तीन दार्शनिक विद्वानों के नाम - 1. एम्पीडोक्लीज (Empedocles) (Atomists) 12. एटोमिस्ट्स 3. इनैक्सागोरस (Anaxagoras) जर्मनदेशीय तत्ववेता हेगल (Hegel) महोदय की मान्यता है कि विरूद्ध धर्मात्मक वस्तु का सिद्ध होना ही संसार का मूल है। किसी वस्तु के वास्तविक तत्व का वर्णन अवश्य करना चाहिये, परन्तु उसके साथ वस्तु के विरूद्ध दो धर्मो का वर्णन समन्वय रूप में भी करना आवश्यक है । अन्यथा वस्तु का पूर्ण व्यवहार नहीं हो सकता । श्री ब्रेडले महोदय की मान्यता है कि “प्रत्येक वस्तु निज रूप में आवश्यक होते हुए भी, उससे इतर्वस्तु की तुलना में तुच्छ भी है।" यहाँ विवक्षा से वस्तु को मुख्य एवं गौण कहा गया है। (अहिंसा दर्शन पृ. 302-303) भारतीय दार्शनिक प्रो. हरिसत्यभट्टाचार्य ने जैनदर्शन में नयों (विवक्षासे एकदेशज्ञान) के अध्ययन को, यूरोपीय अर्वाचीन तर्कशास्त्र के सिद्धांत की तुलना के रूप में कहा है। यूरोपीय तर्कशास्त्र का सिद्धांत - "जैसा जैसा वस्तु का विश्लेषण किया जाता है, वैसा - वैसा उसका सूक्ष्म होता जाता है और वह सामान्य धर्म से विशिष्ट रूप होता जाता है ।" यहाँ पर भी सामान्य विशेष रूप स्यादवाद शैली सिद्ध होती है। (अनेकान्त पत्रिका वर्ष 11, किरण 3, पृ. 245) भारतीय दार्शनिक डॉ. सम्पूर्णानन्द महोदय का अभिमत : जैनदर्शन ने दर्शनशब्द की काल्पनिक भूमि को छोड़कर वस्तु स्थिति को आधार से, संवाद के समीकरण में और यथार्थ तत्वज्ञान के विषय में अनेकान्त दृष्टि और स्याद्वाद भाषा को लोक के लिये प्रदान किया है । (डॉ. महेन्द्र कुमार जैनदर्शन पृ. 560 ) इस प्रकार विज्ञान के आलोक में अनेकान्तवाद एवं स्याद्वाद का प्रकृष्ट प्रभाव दर्शाया गया है। लोक व्यवहार में प्रभावशील अनेकान्तवाद : लोक का समस्त व्यवहार, वातावरण और पर्यावरण स्यादवाद या अपेक्षावाद से प्रभावित है । मानव का एवं प्राणी मात्र का समस्त व्यवहार तथा वातावरण अपेक्षाकृत संयोग और वियोग से आनंदप्रद एवं उपयोगी होता है। अपेक्षा के बिना क्षणमात्र भी लोकव्यवहार या लोकव्यवस्था कार्यकारी नहीं हो सकती । जैसे स्वस्थपुरुष की अपेक्षा स्नान हितकर है और ज्वराक्रान्त रोगी की अपेक्षा स्नान अहितकर है । स्वस्थ पुरुष की अपेक्षा अन्नाहार पौष्टिक है और सन्निपातरोगी की अपेक्षा अन्नाहार प्राणनाशक है इत्यादि । अपेक्षावाद के कर्त्तव्यमार्ग का अन्वेषण होता है, कर्त्तव्यान्वेषण से मानवों के सत्यतत्व में प्रवृत्ति सदैव प्रवाहित होती है। इसी विषय को जैनशास्त्रों में व्यक्त किया गया है, Jain Education International - 247 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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