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________________ कृतित्व/हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ विश्वतत्त्व प्रकाशक अनेकान्तवाद पीठिका : विश्वदर्शनों की परम्परा में प्राचीन भारतीय जैनदर्शन का अस्तित्व पूर्व इतिहास, पुराण, पुरातत्व और तीर्थ क्षेत्रों के द्वारा प्रसिद्ध है, यह वृत्त भारतीय और वैदेशिक साहित्यकों के द्वारा स्वीकृत किया गया है। व्याकरण की व्युत्पत्ति एवं शब्दार्थ से सिद्ध होता है कि जैनदर्शन विश्वदर्शन है, किसी समाज विशेष, वर्ग विशेष और जाति विशेष का नहीं है। तथाहि - योद्रव्य भावकर्मशत्रून् जयतीतिस: जिन: जिनेन (अर्हदेवेन) प्रणीतं दर्शनं इति जैनदर्शनं । अथवा जिनो देवता येषां ते जैना :, जैनानादर्शनं । दृश्यते - ज्ञायते वस्तुतत्त्वं येन इतिदर्शनं शास्त्रमिति का । तात्पर्य - जो महात्मा तीर्थकर ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मो को, क्रोध, मान, मोह, तृष्णा आदि भावकों को नष्टकर विशिष्ट ज्ञान दर्शन शान्ति एवं शक्ति को प्राप्त कर लेता है वह अर्हन्तदेव जिन कहा जाता है तथा जिन देव के द्वारा प्रणीत दर्शन जैनदर्शन कहा जाता है। अथवा जिनदेव जिनमानवों के आप्त (देव) हैं वे मानव जैन शब्द के द्वारा कहे जाते है। ऐसे जैन मानवों का दर्शन जैनदर्शन कहा जाता है। जिसके द्वारा यथार्थ वस्तुतत्व जाना जाता है उसे दर्शन, सिद्धांत या शास्त्र कहते है। अपरिग्रहवाद, अहिंसा, अनेकान्त (स्यादवाद), अध्यात्मवाद, कर्मवाद, मुक्तिवाद ये जैनदर्शन के मौलिक सिद्धांत हैं। उनमें अनेकान्तवाद जैनदर्शन का अद्वितीयलोचन, विश्वतत्वप्रकाशक, वस्तुतत्व प्रदर्शक, लोक का तेजस्वी दिवाकर है। यह अनेकान्त, जैनदर्शन भवन की आधार शिला के रूप से अपनी सत्ता को स्थापित करता है। विश्वशान्तिप्रद अहिंसातत्व की प्रतिष्ठा के लिये दार्शनिक लोक में जैनदर्शन की यह अपूर्णदत्ति (दैन) अनेकान्तमार्तण्ड है, जो अनेकान्त सत्यासत्य का निर्णायक विश्वमैत्री का विधायक होते हुए नव प्रमाण किरणों के द्वारा मिथ्याज्ञानतिमिर को मार्तण्ड के समान निसर्गत: विध्वस्त कर देता है उसके बिना विश्व तत्वों का आलोक नहीं हो सकता। अनेकान्त का उदय : जैनदर्शन की मान्यता है कि लोक में स्कंध और अणु रूप तथा स्थूल एवं सूक्ष्म रूप जीव पुद्गल (जड़) आदि द्रव्ये अनन्त धर्म विशिष्ट, नय एवं प्रमाण से सिद्ध होती है जैसे - कदलीफल में रूप रस गन्ध स्पर्श स्थूलत्व, गुरुत्व अस्तित्व वस्तुतत्व, द्रव्यत्व प्रमेयत्व अगुरूलघुत्व प्रदेशवत्व क्षुधाशामक, पित्तशामक, मलबन्धक आदि गुण होते है । तथा रूग्णजनों को उदरबाधा श्वासकास ,कफवर्धकत्व आदि दोष होते है। इसी प्रकार विश्व के सकल पदार्थो में अनेक धर्म रहते हैं। उन अनेक धर्मो को सर्वज्ञदेव ही अपने विशुद्धज्ञान से एक साथ जान सकता है, परन्तु लोक का यह अल्पज्ञमानव वस्तु के मुख्य एक - एक धर्म को ही शब्द से क्रमश: जान सकता है, एक साथ नहीं जान सकता सब धर्मो को। जैसे नारिंग फल को खाने पर कोई व्यक्ति क्रमश: खट्टा , मीठा, पीला, सुगन्धित, तृषाशामक, कोमल आदि गुणों को अपनी - अपनी दृष्टिकोण से कहते हैं। (237 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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