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________________ कृतित्व/हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ भाव यह है कि ज्ञानी मानवों का कर्त्तव्य है कि वे प्रमाद रहित होकर श्रेष्ठ गुरु (यति-ऐलक आदि) की उपासना सदैव करें। जो सत्यार्थ गुरु की भक्ति करते हैं उनके धर्मानुष्ठानों में कोई विघ्र नहीं आते हैं जैसे कि गरुड़ के प्रभाव से निकट में सर्पो का आगमन नहीं होता है । नीतियों का कथन है कि "सत्संगति: कथय किं न करोति पुंसां" । इति चतुर्विध संघ की यथायोग्य उपासना करना भी विश्व समाज और व्यक्ति के लिये हितकारी होता है: आर्यिका: श्राविकाश्चापि सत्कुर्याद् गुणभूषणा: । चतुर्विधेऽपि संघे, यत्, फलत्युप्तमनल्पश: ॥ (सागार धर्मामृत अ. 2 पद्य 73) तात्पर्य यह कि धार्मिक गृहस्थ या श्रावक, मुनि आर्यिका, श्रावक,श्राविका जो ज्ञानादि गुणों से विभूषित हैं , उनका यथायोग्य आदर सत्कार, संगति, सुरक्षा और दान आदि के द्वारा उपकार करें, कारण कि चार प्रकार के धार्मिक संघ में विधिपूर्वक किया गया कर्त्तव्य दानादि यथासमय बहुत कल्याणकारी होता है। गुरव: पान्तु वो नित्यं, ज्ञानदर्शन नायका: । चारित्रार्णवगम्भीर: , मोक्षमार्गोपदेशका: ॥ सारांश - वे श्रमण तुम सब की पाप एवं अधर्म से रक्षा करें जो यथार्थ दर्शन, ज्ञान, चारित्र की स्वयं साधना करते हैं और विश्व दर्शन, ज्ञान, चारित्र की स्वयं साधना करते हैं। और विश्व के मानवों को मुक्ति के मार्ग का उपदेश देते हैं। कारण कि सत्यार्थ दर्शन, ज्ञान, चारित्र की क्रमशः साधना करना मुक्ति का मार्ग है और दर्शन, ज्ञान चारित्र की सम्पूर्ण सिद्धि को प्राप्त करना परम मुक्ति कही जाती है। श्रमणदीक्षा का सर्वप्रथम उद्घाटन: इस भरतक्षेत्र में जब विभिन्न कल्पवृक्षों के सद्भाव से भोगसामग्री का पर्यावरण था, तब उस भोगयुग में श्रमणदीक्षा को धारण करने की योग्यता, नाम, स्थापना, द्रव्य क्षेत्र, काल, भाव के अनुकूल न होने से मानव में नहीं थी, उस समय श्रमण-धर्म की सत्ता नहीं थी। जब भोगयुग का पर्यावरण समाप्त हो गया और कर्मयुग का पर्यावरण प्रांरभ हुआ। तब मानव की आत्मशुद्धि के लिये मोक्षमार्ग के प्रचार की आवश्यकता प्रतीत हुई। मोक्षमार्ग का प्रदर्शन श्रमणसाधना के बिना नहीं हो सकता है। इसी कारण से श्री ऋषभ तीर्थकर के द्वितीय पुत्र ने परम्परा को चलाने के लिये सर्वप्रथम स्वयं ही मुक्तिप्राप्त करने के लिये श्रमणदीक्षा का उद्घाटन किया। श्री बाहुबलिस्तोत्र का उद्धरण: श्रीमान्नाभेयजातः, प्रथममनसिजो, नाभिराजस्य नप्ता, संसारं देह भोगं, तृणमिव बिमुचे, भारते संगरे यः । कायोत्सर्ग वितन्वन, ममदुरगलद् , गर्भवल्मीक जुष्टम्, सोऽयं विन्ध्याचलेशः, सजयतु सुचिरं, गोमटेशो जिनेश: ॥ (232) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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