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________________ कृतित्व/हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ लोक में श्रमण परम्परा का महत्व एवं उपयोगिता तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव से लेकर तीर्थंकर भगवान महावीर तक श्रमणों की परम्परा की प्रगति होती रही। 2516 वर्ष पूर्व भ. महावीर की मुक्ति के पश्चात् इन्द्रभूति गणधर एक, प्रतिगणधर -10, केवलज्ञानी, श्रुतकेवली, श्रुतधराचार्य, सारस्वताचार्य, प्रबुद्धाचार्य और शतशत परम्परा पोषक, सिद्धान्तवेत्ता आचार्यो के अस्तित्व से श्रमण परम्परा सिद्ध होती है। णमो अरहंताणं णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं । णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं ॥ इस महामंत्र में आचार्य, उपाध्याय और सर्व साधु वर्ग को नमस्कार करने से भी अतिप्राचीन श्रमण परम्परा का अस्तित्व प्रमाणित होता है। जिस प्रकार पिता-पुत्र से वंश की परम्परा की प्रगति होती है उसी प्रकार आचार्य-शिष्य परम्परा से श्रमण परम्परा संचालित होती है। आचार्य एवं उपाध्याय,शिष्यों का अनुग्रह तत्त्वोपदेश, संघ प्रवर्तन, दीक्षा, नियमोपदेश और संघपरिरक्षण का कार्य अनुशासनबद्ध करते हैं तथा प्रायश्चित एवं प्रतिक्रमण द्वारा शिष्य (मुनियों) के दोषों को दूर कर आत्मा की शुद्धि करते हैं। श्रमण धर्म की आवश्यकता को व्यक्त करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द श्रमण धर्म का उपदेश प्रदान करते हैं - एवं पणमिय सिद्धे, जिणवरवसहे पुणो पुणो समणे । पडिवज्जदु सामण्णं, जदि इच्छदि दुक्खपरिमोक्खं ॥ (प्रवचनसार. अ.3, गा. 1) अर्थात्- ज्ञानगुण के महत्व को समझकर भव्यमानव यदि कर्मजनित असंख्य दुःखों से पूर्णत: मुक्ति चाहते हैं तो श्रमण धर्म को अंगीकार करें। यह उपदेश, सिद्ध अरिहन्त, आचार्य, उपाध्याय और श्रमणों को भक्तिपूर्वक प्रणाम करके कहा गया है। इस कथन से श्रमण धर्म की अत्यन्त आवश्यकता प्रतीत होती है। __ श्रमण परम्परा को अक्षुण्ण रखने, प्रभावित करने, वृद्धिंगत करने एवं सार्थक करने के विषय में पण्डित प्रवर आशा धर ने घोषित किया है : जिनधर्म जगद् बन्धु-मनुबद्धमपत्यवत् । यतीन् जनयितुं यस्येत् , तथोत्कर्षयितुं गुणैः ॥ __(सागारधर्मामृत अ । 2, पद्य 71) तात्पर्य यह कि जिस प्रकार अपने वंश की परम्परा को सुरक्षित एवं वृद्धिंगत करने के लिये सन्तान (230 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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