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________________ कृतित्व/हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ धनधान्यादिग्रन्थं, परिमाण ततोधिकेषु निस्पृहतः । परिमितपरिग्रह: स्यादिच्छापरिमाणनामापि ॥ (रत्नकरण्ड श्रावकाचार- श्लोक 15, अ. 3) गोधन; सुवर्ण, धान्य आदि पदार्थों का परिमाण (मर्यादा) कर उससे अधिक पदार्थों में तृष्णा नहीं करना परिग्रह परिमाण नाम का अणुव्रत कहा जाता है। इसको इच्छा परिमाण नामक, व्रत भी कहते हैं, क्योंकि इस नियम में अनेक पदार्थों के प्रति तथा इन्द्रिय विषयों के प्रति बढ़ती हुई इच्छाओं पर रुकावट हो जाती है। जलती हुई इच्छाओं की शान्ति, ज्ञान एवं संयम रूप शीतल जल से ही होती है । यह गृहस्थों या श्रावकों की अणुव्रत कथा प्रसिद्ध है। __ यह परिग्रह परिमाण व्रत/इच्छापरिमाण व्रत अत्यन्त लोककल्याणकारी है। यदि आज का मानव, शासक अथवा सत्ताधिकारी व्यक्ति, इस व्रत को जीवन में बुद्धिपूर्वक स्वीकृत कर लेवें तो पंजाब की समस्या, अयोध्या मन्दिर की समस्या, काश्मीर की समस्या और एकच्छत्रशासन की समस्या का समाधान सरलता से पूर्ण हो जावे तथा हाइड्रोजन बम एवं एटमवम का भय समाप्त हो जाय । सभी व्यक्ति अपनेअपने राज्य का सन्तोष के साथ संरक्षण करें, कोई शासक किसी राष्ट्र पर आक्रमण न करे। कवि का कथन है 'जब आवे सन्तोष धन, सब धन धूल समान ।' यदि ज्वलन्त इच्छाओं को सीमित कर लिया जाय अथवा पदार्थों का परिमाण कर लिया जाय तो सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन सुख शान्ति से परिपूर्ण हो जाय । पारिवारिक जीवन में धन के बँटवारे के कारण विद्रोह शान्त हो जाय । न्यायपूर्वक धनोपार्जन के कारण अनेक विद्रोह एवं भ्रष्टाचार नष्ट हो जाय । समाज में सन्तोषामृत के कारण संघर्ष, चोरी, डकैती, लूटपाट, अपहरण आदि की दुर्घटनाएं समाप्त होकर शान्ति का वातावरण छा जाय । यह सब एकदेश अपरिग्रह के कारण हो सकता है। अब परिग्रह (वस्तु संग्रह) के महात्याग या महाव्रत, जो दूसरी बड़ी कक्षा है उस पर विचार किया जाता है : __ जिस कक्षा में सेवक, पशु धन, सुवर्ण, भवन, क्षेत्र आदि बाह्य वस्तुओं का तथा अतत्त्व श्रद्धान, क्रोध, तृष्णा, मोह, माया आदि अन्तरंग कुभावों का मनसा, वाचा, कर्मणा, कृत, कारित, अनुमति इन नव प्रकारों से बुद्धिपूर्वक परित्याग किया जाता है वह पूर्ण परिग्रह त्याग महाव्रत अथवा सकल व्रत कहा जाता है। इस महान व्रत की साधना साधु ही कर सकते हैं। व्याकरण की दृष्टि से व्युत्पत्ति कही गई है कि 'साधनोति परमकार्य इति साधुः' अर्थात् जो मुक्ति के मार्ग की या परिग्रह त्याग महाव्रत की जो अटल साधना करे वह साधु, मुनि या तपस्वी प्रसिद्ध है। धर्मशास्त्रों में परिग्रह त्याग महाव्रत का कथन इस प्रकार है - चेतनेतर बाह्ययान्तरंगसंगविवर्जनम् । ज्ञानसंयमसंगों वा निर्ममत्वमसंगता ॥ (धर्मामृत अध्याय 5 : श्लोक 7) (186 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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