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________________ कृतित्व/हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ 11- भूमि पर कांच सुई कांटे आदि नुकीले पदार्थो का न होना, जिससे गमनागमन में प्राणियों को किसी प्रकार का कष्ट न हो। 12- देश देश , नगन - नगर और ग्राम - ग्राम में समस्त वातावरण का आनंदमय होना। 13- बिहार के समय भ. महावीर के आगे धर्मचक्र का चलना। 14- कलश ध्वजा स्वस्तिक आदि आठ मंगलद्रव्यों का निकट विद्यमान रहना । इन सब के द्वारा देशों में, नगरों में बड़ा परिवर्तन, सुधार और विकास हो गया था। विश्वशान्ति का झण्डा लहराया गया जिससे समस्त प्राणियों को कल्याण मार्ग का दर्शन होने लगा। उस समवशरण में दिन रात्रि का भेद नहीं रहता, अत: उनका दिव्य उपदेश छह घटी (2 घण्टा - चौबीस मिनिट ) ध्वनित होकर, नवघड़ी (3 घण्टा 36 मिनिट) स्थगित रहता था। इस क्रम से 24 घण्टों में चार वार चालू रहना और चार - वार स्थगित रहना, इस प्रकार दैनिक उपदेश का प्रवाहतीसवर्ष तक चलता रहा। भ.महावीर के समवशरण में ग्यारह गणधर नियक्त थे उनमें इन्द्रभतिगौतमगणधर प्रधान थे जो कि वीर के गंभीर सिद्धांतों को धारणकर सरल शब्द रचना द्वारा जनसाधारण तक भेजते थे। निर्वाण का पूर्व रूप - पद्मवनदीर्घिकाकुल विविधद्रुमखण्डमण्डिते रम्ये । पावानगरोद्याने व्युत्सर्गेण स्थित: स मुनि : ॥16॥ अर्थात् - आर्यखण्ड के सैकड़ों देशों में विहार करने के बाद तीर्थकर महावीर ने विहार प्रान्तीय पावापुरी में शोभित कमलयुक्त विशाल सरोवर तथा विविधवृक्षों से व्याप्त रमणीय उद्यान में कार्तिक कृष्णा त्रयोदशी (धन्यत्रयोदशी) को मन वचन काय की क्रिया को रोकने के लिए व्युपरत क्रिया निवृत्ति नाम के शुक्ल ध्यान (श्रेष्टध्यान) का आश्रय लेना प्रारंभ किया। वह दशा खड्गासन में थी। निर्वाण कल्याणक कार्तिककृष्ण स्यान्ते स्वातावृक्षे निहत्य कर्मरजः । अवशेषं सम्प्रापद् व्यजरामरमक्षयं सौख्यम् ॥17॥ पावापुरस्य बहिरून्नतमूमिदेशे पद्मोत्पलाकुलवतां 'सरसां' हि मध्ये । श्री वर्धमान जिनदेव इति प्रतीतो निर्वाणमाप भगवान्प्रविधूतपाप्पा ॥24॥ (निर्वाण भक्ति श्लोक 17-24) अर्थात् - कार्तिककृ ष्णा अमावास्यातिथि में स्वातिनक्षत्र के उदयकाल में, अवशेष वेदनीय, आयुकर्म, नामकर्म, गोत्रकर्मनामके अघाति कर्म रूप धूलि का क्षयकर, सरोवर के मध्य उच्च भूप्रदेश में, चतुर्दशगुणस्थान में अल्पसमय व्यतीत कर, ईसा से 527 वर्ष पूर्व काल में सूर्योदय के पूर्व निर्वाण (परमविशुद्ध अवस्था) को प्राप्त हुए। उन्होंने अष्टकर्म दोषों के अभाव में आठ परम गुणों का अक्षय विकास कर लिया। वे परम गुण इस प्रकार है - (1) सम्यक्त्व, (2) अनंतदर्शन, (3) अनंतज्ञान , (4) अगुरूलघुत्व (5) अवगाहनत्व, (182) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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