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________________ (6) कृतित्व/हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ अनेक जीवों के घातक ये दुष्ट सिंह सर्प बिच्छू आदि प्राणी अधिक दिनों तक जीवित रहेंगे तो अधिक पाप बंध करेंगे और शीघ्र मार दिये जावेंगे तो परलोक में पुण्य की प्राप्ति करेंगे - इस प्रकार की खोटी दया से सिंह आदि दुष्ट जीवों का विनाश नहीं करना चाहिये । कारण कि इस रीति से जगत में दुष्ट जीवों का अभाव नहीं हो सकता । इसी प्रकार मारे गये प्राणियों को और मारने वालों को पुण्य की प्राप्ति होना असंभव है। अनेक दुःखो से पीड़ित कोई भी प्राणी अल्पसमय में ही दुःख का नाश होने से सुख को प्राप्त हो जायेगा- इस प्रकार की वासना रूप कृपाण को लेकर दुःखी जीव का वध न करना चाहिए । कारण कि दुःख पूर्ण दशा में संक्लेशभावों से मरकर कोई प्राणी सुखी नहीं हो सकता, वह वर्तमान दुःख का तथा अग्रिम दुःख का अनुभव अवश्य करेगा। किसी के भाग्य का कोई भी व्यक्ति विनाश नहीं कर सकता। सुख की प्राप्ति बड़े कष्ट या परिश्रम से होती है इसलिये इस लोक में सुखी प्राणी का नाश अवश्य कर देना चाहिए। जिससे कि इस लोक का बचा हुआ सुख परलोक में भी काम आवे ।यदि इस लोक में सब सुख समाप्त हो जायेगा तो परलोक दुःख संयुक्त हो जायेगा । इस प्रकार के कुतर्क रूप खङ्ग को सुखी प्राणी के गर्दन पर नहीं चलाना चाहिए । कारण कि सुखी जीव को मारने से उसे दुःख होगा, दुःख दशा में मरने से परलोक में कुगति प्राप्त होगी, जिसमें बहुत दुःख होगा। मारने वाला हिंसक कहा जायेगा। दूसरी युक्ति-भाग्य में लिखे हुए किसी भी प्राणी के सुख-दुख को कोई मेंट नहीं सकता। गुरूवर अधिक काल तक अभ्यास करके अब समाधि में मग्न हो रहे है यदि इस समय ये मार दिये जावे तो उच्चपद प्राप्त कर लेंगे इस मिथ्याश्रद्धान से परोपकारी शिष्य को अपने गुरुजी का शिरच्छेद नहीं करना चाहिए कारण कि गुरु जी ध्यान के द्वारा अपना सुख स्वयं कर लेंगे। गुरुजी को मारने से पाप का बन्ध होगा । मरते समय गुरु जी के संक्लेश भाव होने से खोटी गति प्राप्त होगी |किसी के भाग्य को कोई मेट नहीं सकता । अन्यथा भाग्य का लेख व्यर्थ हो जायेगा। (10) विक्रम की 12वीं शताब्दी में भारत में एक खारपटिक' नाम का मत प्रचलित था जिसमें मुक्ति के स्वरूप की मान्यता विचित्र प्रकार की है - जिस प्रकार एक घड़े में कैद की गई चिड़िया घड़े के फोड़ देने से उड़ जाती है उसी प्रकार शरीर का नाश कर देने से शरीर में स्थित आत्मा की मुक्ति हो जाती है - इस प्रकार धन लोलुपी, रक्त के प्यासे खारपटिक मतवादियों के सिद्धांत को मानकर किसी भी प्राणी की हिंसा न करना चाहिये । कारण कि हिंसा पाप से मुक्ति मानना पत्थर पर कमल उत्पन्न करने के समान असंभव है।मोक्ष इतना सस्ता और सरल नहीं है कि किसी प्राणी को जान से मार देने पर मिल जाता हो । अन्यथा मुक्ति के लिए त्याग और तपस्या करना व्यर्थ सिद्ध हो जायेगा। (11) किसी भूखे मांस भक्षी पुरूष को, किसी रोगी को, देवता को, अतिथिसत्कार को, लोभ के कारण (165) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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