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________________ कृतित्व/हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ शरीर का नहीं आत्मा का गुण है ।शरीर से क्षीण पुरूष भी औरों की मदद से हिंसा करते हुए देखे गये हैं। शरीर से बलवान होते हुए भी युधिष्ठिर जैसे विराट राजा जैसों को क्षमा प्रदान करते हुए देखे गये हैं।' (हिन्दी नव जीवन 23 अप्रैल सन् 1922 पृ.285) धर्म शास्त्रों का प्रमाण है - "क्षमा वीरस्य भूषणम् । ___ "अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमम्" अर्थात् - इस जगत में अहिंसा समस्त प्राणियों के लिए परब्रह्म के समान प्रसिद्ध है। (आचार्य समंतभद्र) अहिंसा से ही विश्वशान्ति - इस वैज्ञानिक युग में अहिंसा से विश्व शान्ति नहीं मानना मिथ्याधारणा है । वर्तमान में मानव हिंसा के भयानक हत्याकाण्डों से ऊबकर सुख शान्ति की शीतल छाया में आना चाहता है इसके लिए वह महान् अन्वेषण भी कर रहा है। वह मानव शान्ति सम्मेलन और सार्वजनिक सभाओं में उस शान्ति के लिए जोशीले भाषण भी देता है । समाचार पत्रों में लम्बे लम्बे लेख और कविताएं लिखकर विश्व शान्ति का देश - देश में प्रचार भी करता है । और राज्य के कानून भी उसके लिए बना रहा है ।परन्तु वर्तमान जगत के प्रायः किसी भी क्षेत्र में जीवन शान्ति दृष्टिगोचर नहीं हो रही है, वह तो केवल प्रशंसा करने की ही वस्तु बन रही है। इसका कारण विचार करने पर यही सिद्ध होता है कि अभी मानव ने विश्व शान्ति या जीवन शान्ति का प्रधान कारण परम अहिंसा धर्म की उपासना सच्चे मन वचन कर्म से नहीं की है। जैसे दवा के नाम को हजारों बार जपने और उसकी प्रशंसा करने पर भी रोगी के रोग दूर नहीं हो सकते है, वैसे ही अहिंसा का नाम हजारों बार रटने और उसकी प्रशंसा करने से भी जीवन के कष्ट दूर नहीं हो सकते है, कर्मो का अभाव कर आत्मा पवित्र नहीं हो सकती । इसलिए यदि यह मानव विश्व में या अपने जीवन क्षेत्र में सुख शान्ति एवं आत्म शुद्धि चाहता है तो उसे अपने जीवन क्षेत्र में श्रद्धा - ज्ञान पूर्वक अहिंसा को अपनाना (आचरण करना) आवश्यक होगा और हिंसा का बहिष्कार करना ही होगा । विक्रम की 13 वीं शताब्दी के संस्कृतज्ञ भारतीय जैन विद्वान पं. आशाधर महोदय का मत देखिये - दुःख मुत्पद्यते जन्तोर्मन: संक्लिश्यतेऽस्पते । तत्पर्यायश्च यस्यां सा हिंसा हेया प्रयत्नत:॥ ___(सागार धर्मामृत अ.4 श्लो.13) भावार्थ - हिंसा से प्राणियों के जीवन में दुःख उपस्थित होता है । हृदय सदा संक्लिष्ट तथा अशुद्ध रहता है। वर्तमान जीवन तथा देश की दशा नष्ट हो जाती है सुखशान्ति का नाम ही नहीं रहता है। केवल अशान्ति का वातावरण ही छा जाता है इसलिए अनेक उपायों से हिंसा को त्यागकर अहिंसा का आचरण करना चाहिए। आज का मानव अग्नि से सन्तप्त लोहे का गोला है। जैसे सन्तप्त लोहे का गोला सब ओर से वस्तुओं को जलाकर अपनी तरह कर लेता है, वैसे ही तृष्णाग्नि से सन्तप्त यह प्राणी या मानव सब ओर से वस्तुओं को लूटकर अपने आधीन करना चाहता है। विश्व में शान्ति स्थापना की डींग मारकर जगत का एकच्छत्र सम्राट (157 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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