SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 184
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्यक्तित्व साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ रत्नसम अमूल्य मेरे नाना जी श्रीमती प्रीति जैन, संजय जैन महासैल, भोपाल (म.प्र.) नाना जी का नाम लेते ही मेरी आंखों के सामने नाना जी का चित्र झलकने लगता है मुझे बचपन के वह दिन याद आते हैं जब गर्मी की छुटटी के दिन नाना के पास में ही व्यतीत करते थे। जैसे रत्नों की दीप्ति अद्वितीय होती है, वह रत्न सब वस्तुओं में बड़ा मूल्यवान हुआ करता है, वैसे ही मेरे नाना जी एक अद्वितीय महापुरूष जान पड़ते थे उनमें विशेष रूप से ज्ञान की आभा झलकती थी, उनका महान व्यक्तित्व दिखाई देता था, उन्होंने अपना सारा जीवन ज्ञानार्जन में ही व्यतीत किया, जीवन पर्यन्त जिनवाणी की सेवा की है। अन्त समय तक विद्यार्थियों को भी अध्ययन कराते रहे ऐसा आत्मवल तो किन्हीं बिरले महापुरुषों में देखने को मिलता है। नाना जी समाज की धरोहर जैसे थे उनके दिवंगत होने पर हम सबको ऐसा लग रहा है जैसे हम लोगों के बीच से कोई कीमती वस्तु चली गई हो । नाना जी हम सब बच्चों को बहुत वात्सल्य से रखते थे और आदर्श जीवन की शिक्षा देते थे। सागर से जाने के बाद बहुत दिन तक नाना जी याद आते रहते थे। इन्हीं सब स्मृतियों को संजाते हुए उनका आगामी भव धर्म मार्ग पर प्रशस्त रूप से बना रहे ऐसी शुभकामना है। सरल एवं सहज व्यक्तित्व वीरेन्द कुमार शास्त्री ग्राम बोरई (गढ़ाकोटा) सागर आदरणीय पंडित जी के बारे में कुछ कहना सूर्य को चिराग दिखाने जैसा है। आप इतने सरल एवं सहज स्वाभावी व्यक्ति थे कि मान तो कभी छू भी नहीं पाया है ।जिनवाणी के गूढ रहस्यों को अपनी विद्वतमय शैली एवं सुसंस्कारित सरल भाषा में उद्घाटित कर मानवीय गुणों की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा देते रहे। मैंने जब अध्ययन करने के लिए विद्यालय में दाखिला लिया, तब पं. जी प्राचार्य के पद पर प्रतिष्ठापूर्ण जीवन व्यतीत कर रहे थे। विद्यालय के समय, मैं पं. जी से बहुत डरता था लेकिन जैसे - जैसे सम्पर्क में आया तो इतना वात्सल्य एवं प्रेम मिला कि वर्णन नहीं कर सकता हूँ। । एक दिन की बात हम सभी विद्यार्थी "बाहुबली जिनालय" में सामूहिक पूजन कर रहे थे कि अचानक पंडित जी भी दर्शनार्थ आये एवं हम सभी लोगों को पूजन की विधि एवं प्रभु का गुणानुवाद किस प्रकार किया जाता है या श्रावक को करना चाहिए यह बताया । यह सब मैंने पहली बार एक "सरस्वती (137 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy