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________________ व्यक्तित्व साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ चंद्र चाँदनी सम मेरे पिताजी श्रीमती शकुन्तला जैन, भोपाल जैसे चंद्रमा की चांदनी सबको सुखदायी होती है वैसे ही मेरे पिताजी भी हम सबको सुखदायी थे। जैसे नक्षत्रों के बीच चंद्रमा शोभायमान होता है, वैसे ही हम सब बहिनों को बीच हमारे पिता श्री शोभायमान थे। बहुत परिश्रम से सर्विस करके हम बहनों को पढ़ाया लिखाया धर्म साधना करने की शिक्षा दी। संघर्ष मय जीवन के साथ भी धर्ममार्ग पर चलते रहे। दूसरों का उपकार करने में पीछे नहीं रहते थे। जीवन भर विद्यार्थियों को ज्ञान दान देते रहे। वर्णी जी के आदेश का पालन बड़े समर्पण के साथ किया, उनके आदेश का पालन करना अपना कर्त्तव्य समझा था। जैसे चांदनी सब प्राणियों पर समान रूप से अपनी आभा विखेरती है, वैसे ही मेरे पिताजी सब को समान रूप से शिक्षा देते रहे । समान रूप से सबका परोपकार करते थे। किसी के भी साथ भेदभाव नहीं करते थे। पिताजी के जाने से हम लोगों को ऐसा लगता है, जैसे हमारा अब कोई नहीं है । शुक्ल पक्ष के बाद अब कृष्ण पक्ष ही नजर आ रहा है । शुक्ल पक्ष में तो चंद्रमा अपनी चांदनी विखेरता रहता है लेकिन कृष्ण पक्ष में चांदनी धीरे धीरे विलीन होती जाती है । बस अब ऐसा ही लग रहा है कि हमारे पिताजी के जाने से चांदनी के अभाव जैसा शून्य सा लग रहा है, उनके जाने से हम बहनों के मन में जो उदासीनता आई है, वह उदासीनता संसार की असारता का दिग्दर्शन करा रही है। उनकी जीवन गाथा को शब्दों में जितना कहें उतना कम है । भावों में उनका स्मरण करते हुये हम उनकी आत्मशांति के लिए विनयांजलि समर्पित करते हैं। पिता रूपी सूर्य की स्मृति श्रीमती सोमा श्री जैन, कोरवा म.प्र. ज्ञानपुंज स्वरूप मैं अपने पिता की भाव भींगी स्मृति करते हुये उनके जीवन के आदर्श रूप दर्पण को जब याद करती हूँ तो ऐसा लगता है कि ज्ञान की आभा विखेरने वाले आज मेरे पिता हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन ज्ञान की अमिट छाप हम लोगों पर छोड़ गये है, जैसे सूर्य अपनी रश्मियों से जगत को आलोकित करता हैं। वैसे ही हमारे पिताजी स्वयं को एवं समस्त समाज को ज्ञानपुंज से आलोकित करते थे। उनके आदर्श की छाप उनके पढ़ाये प्रत्येक विद्यार्थी पर पड़ी हैं। जैसे किसमिस अंदर भी नरम और बाहर भी नरम दोनों तरफ समान है, वैसे ही हमारे पिताजी अंदर बाहर से सरल स्वभावी थे। उनका व्यक्तित्व धर्म की कसौटी पर निखरा हुआ था। धर्म ध्वजा फहराना उनके जीवन का लक्ष्य था। उन्होंने सम्मेद शिखर जी की (135 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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