SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 156
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्यक्तित्व साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ भ. महावीर के समान सत्य अहिंसा द्वारा कठिन समस्याओं पर विजय पाई जा सकती है। सत्यवादी अहिंसक की सबसे बड़ी विशेषता होती है मितव्ययता, आचरण की, व्यवहार की, भाषण की धनादि की। जिसका पालन कर पंडित जी ने अपना सारा जीवन विता दिया। उनके प्रवचन की संक्षिप्तता उनकी विशेषता थी। उन्होने जो कुछ भी कहा हृदय से निकला हुआ तीखा सत्य कहा । उन्होंने अपने प्रवचनों में कभी पांडित्य का प्रदर्शन नहीं किया। उन्होंने अपने हृदय की अभिव्यक्ति बिना अलंकृत किए सहज शब्दों में प्रस्तुत की। जिससे जन मानस उनकी सहजता, सरलता, और उनकी अभिव्यक्ति का कायल हो गया। इस शिक्षित और वैज्ञानिक युग में ज्ञान और आचरण के बीच गहरी खाई बन चुकी है। "पर उपदेश कुशल बहुतेरे' के दर्शन हर जगह हो जायेंगे। लेकिन पंडित जी ने ज्ञान को व्यवहारिक रूप प्रदान किया। जिन्होंने शिक्षा को आचरण में ढाल दिया, जिसे उन्हें प्रमाण देने की आवश्यकता नहीं पड़ी। वे ऐसे विरल रत्न थे जिन्होंने आचरण हीन ज्ञान को पाखंड माना । ___ सेवा सादगी जीवन का मूल मंत्र है। उनका सारा जीवन सेवा की उज्जवल कहानी रहा है। उनकी आवश्यकतायें कम थी और कम से कम में ही पूरा जीवन आनंद के साथ जिया । उनकी सादगी उनके अपरिग्रही होने का सबसे बड़ा प्रमाण थी। इस शिक्षित युग के व्यक्तियों में पवित्र श्रद्धा तथा संयम के प्रति आकर्षण शून्य सरीखा होता जा रहा है। वाणी से चारित्र का उच्चारण बार बार होता है पर जीवन में संपर्क नहीं हो पाता। महापुराण में जिनसेन स्वामी ने सम्राट भरत के स्वप्न "एक वृक्ष जो शुष्क हो गया" का उल्लेख करते हुए लिखा कि आगे स्त्री पुरूष समाज में सदाचार में शिथिलता उत्पन्न होगी। पर पंडित जी ने अपने जीवन में मृत्यु पर्यंत तक शिथिलता को अपने पास फटकने नहीं दिया। __ आध्यात्मिक अंधियारी में ऐसे कम सौभाग्य शाली हैं जो समीचीन श्रद्धा मूलक ज्ञान और सदाचार का पालन कर रहे है । तब पंडित जी ने श्रद्धा मूलक ज्ञान और सदाचार का निष्कंलक पालन कर जड़वाद से जर्जरित युग में अध्यात्मवाद के प्रदीप को प्रदीप्त रखते हुए मार्गभ्रष्ट लोगों का पथ प्रदर्शन करते रहे । ___पंडित जी द्वारा भरतेन्दु के समान अजस्र साहित्यिक धारा का सुनहले प्रभात का उदभव हुआ। साहित्यिक महारथियों के मध्य पंडित जी की साहित्यिक साधना ने अपना स्थान अग्रिम पंक्ति के पंडितों में दर्ज करवा लिया। आपका हृदय निष्पाप था। आपके हाथ सदा कार्य करते रहे । पैर व्यर्थ घुमने से कतराते रहे। आपके वचनों में मधुरता शिष्टता एवं निष्कपटता थी। आपकी दूरदर्शिता आपकी पथ प्रदर्शक रही। आप अपने छात्रों को अपने समतुल्य बनाने का उपक्रम निरंतर करते रहे । वस्तुत: आप धन्य है, वह संस्था धन्य है, जहां आपने अपने व्यक्तित्व के साथ संस्था के विकास की आधार शिला रखी। हमारा अपना भायजी परिवार धन्य है जहां आप जैसे मृदुभाषी, सरल, विद्वानों के कारण अलंकृत हो उठा है। ऐसे आध्यात्मवेत्ता बड़े पापा को श्रद्धा सुमन अर्पित करता हुआ कोटिशः नमन करता हूँ। (109 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy