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________________ व्यक्तित्व साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ था और इसी यथा नाम तथा गुण के आधार पर नाम रख दिया दयाचंद । बालक से युवा होने का क्रम समय की धारा के साथ जुड़ता गया और विद्यार्जन का सिलसिला शुरू हुआ। पिता पं. भगवानदास जी ज्ञान की गरिमा को जानते थे और धर्म की वैशिष्टता से विज्ञ थे अत: प्राथमिक संस्कार व शिक्षा शाहपुर में प्राप्त कराके वर्णी जी के उस विशाल ज्ञानतरू में श्री गणेश दि. जैन संस्कृत महाविद्यालय सागर में दाखिला दिला दिया, विद्यार्थी की प्रतिभा तो प्रेरक थी ही ज्ञान की गंगा में अवगाहन करके अपने अग्रज पं. माणिकचंद्र एवं पं. श्रुत सागर जी के सरंक्षण व दिशा निर्देशन में विद्यालय में अध्ययन प्रारंभ कर दिया । उत्कृष्टतम संस्कृत धार्मिक शिक्षा प्राप्त की तथा जैन दर्शनचार्य साहित्याचार्य, सिद्धांताचार्य, प्रतिष्ठाचार्य जैसी उत्कृष्टतम उपाधियों को प्राप्त किया। तथा शोध प्रबंध लिखकर पी.एच.डी (डॉक्टर) की उपाधि से विभूषित हुए। पण्डित जी के जीवन की पगडंडियों का मापदण्ड व सफरनामा संघर्षमय रहा जिसे मैं अपना विषय नहीं बनाना चाहता हूँ किन्तु वे परिस्थिति से जरा भी विचलित नहीं हुए और जिनवाणी की उपासना से कभी वंचित नहीं हुए उनने पीछे मुड़ना कभी नहीं जाना वे तो आगे बढ़ते गये जो उनके अदम्य साहस की विशेषता थी। अब मैं अपनी कलम को दूसरी ओर मोड़ रहा हूँ मैंने उन्हें अपने गुरु के रूप में पाकर जो ग्रहण किया जो उनसे पाया उसे कलम से कागज पर उकेर रहा हूँ जो मैंने उनमें पाया उसे विभिन्न बिन्दुओं के माध्यम से लिख रहा हूँ - श्रेष्ठतम गुरु :- गुरु का हृदय कबीर की उस परिकल्पना से आंका जा सकता है जिसमें कहा गया कि "गुरु कुलाल शिशु कुम्भ है, गड़ गड़ काड़े खोट, भीतर हाथ संभारकर ऊपर मारे चोट" ये चार चरण पण्डित जी में समाहित थे। मुझे उनका शिष्यत्व प्राप्त हुआ है। वे श्रेष्ठ गुरु के सभी गुणों से विभूषित थे। उन्हें देखकर धौम्य वशिष्ठ जैसे गुरुओं की परिकल्पना परिलक्षित होती थी। अपने विद्यार्थी के प्रति वे कितने सजग रहते थे विद्यार्थी को श्रेष्ठ से श्रेष्ठ बनाने की भावना रखते थे। विद्यार्थी उनका केन्द्र बिन्दु रहा करता था। यदि विद्यार्थी बीमार होता था तो उसे कमरे से जगाकर कक्षा तक ले आते थे उनके मन में भावना रहती थी कि विद्यार्थी आज के विषय से वंचित न रह जाये आदर्श शुरू के सभी गुण उनमें विद्यमान थे। अनुशासन प्रिय :- पण्डित जी को विद्यालय में बड़े शास्त्री कहा जाता था छोटे शास्त्री पं. धर्मचंद्र जी कहलाते थे। बड़े शास्त्री का अनुशासन जितना कठोर था उनका हृदय उतना ही मृदु था वे लापरवाही उदण्डता, आलस्य के घोर विरोधी थे वे बड़े प्रभावी विद्वान थे बैठने, पढ़ने, बोलने आदि का अनुशासन मैंने पंडित जी साब की कृपा से प्राप्त किया है। नियमों के प्रवर्तन में जितने कठोर थे उसके प्रवर्तन में उतने ही सरल थे। उनका वेंत प्रसिद्ध था जो हमेशा अनुशासित रहने का मार्ग प्रशस्त करता था समय - समय पर पंडित जी वेंत का प्रयोग करते थे। वे विद्यार्थी को मारने के तत्काल बाद वेहद् पश्चाताप करते थे कहाँ करते थे देखों विद्यार्थी पिट गया तथा विद्यार्थी के सिर पर हाथ फेरने लगते थे। सहिष्णु थे पण्डित जी :- पंडित साब बड़े सहृदयी एवं सहिष्णु थे वे विद्यार्थी की प्रत्येक पीड़ा को (105) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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