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________________ व्यक्तित्व साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ मेरे उपकारी - बड़े पण्डित जी मुनि विभव सागर विद्या वाचस्पति सरस्वती पुत्र जिनवाणी आराधक अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी बहुभाषा विद् विद्वत रत्न पं. डॉ. दयाचंद्र साहित्याचार्य जी अजर अमर है । जिन्होंने अपनी कलम से हिन्दी संस्कृत साहित्य जगत में शोध प्रबंध एवं अनेक शोध पत्र लिखकर जैन साहित्य संस्कृति में अविस्मरणीय योगदान दिया। ___ श्रमण संस्कृति उपासक जैन धर्म संरक्षक, संस्कृत विद्या प्रचारक जैन साहित्य उद्घाटक विद्वत रत्न गर्दा श्री गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय मोराजी सागर के प्राचार्य पद पर आसीन वर्णी वाटिका को अविराम अभिसिंचित करने वाले, स्वपरोपकारक पण्डित जी को मैंने बाल्यकाल से ही माँ की ममता और पिता के प्यार तथा आत्म हितैषी विद्या प्रदाता के रूप में पाया | उनकी मीठी डॉट और मधुर प्यार पाने का सौभाग्य भी मुझे मिला। डॉट तो झूठी और कुछ पल के लिए होती थी, पर आपका प्यार चिरस्थायी जीवन्त अविस्मरणीय रहा । आपको हम सभी बालक बड़े पंडित जी के नाम से जानते थे, पुकारते थे। प्राचीन कालीन गुरूकुल पद्धति का दर्शन और धार्मिक शिक्षण हम आपके शुभ सान्निध्य में कर सके । प्रत्येक शनिवार को आयोजित छात्र हितकारिणी सभा में विद्यार्थियों को दिया जाने वाला आत्मीय सम्बोधन मैंने अनेकों बार सुना । आपका मानना था यदि विद्यार्थी में विद्यार्थी के लक्षण प्रकट हो जायें तो विद्या स्वयमेव आ जायेगी। अत: आपका प्रिय हितकारी श्लोक स्मृति पटल पर सदैव अंकित रहता है - यथा काक चेष्टा वको ध्यानं, श्वान निद्रा तथैव च । अल्पाहारी गृहत्यागी, विद्यार्थी पंच लक्षणम् ॥ उपर्युक्त श्लोक का अर्थ भावार्थ प्रयोजन हम बालकों के कोमल मस्तिष्क में इस तरह भर देते थे कि विद्यार्थी माता पिता के मोह को भूलकर मात्र अपने लक्ष्य के प्रति पूर्ण समर्पित हो जाते थे। आपकी अनुशासित चर्या ने सहज ही आत्मानुशासन और स्वाबलम्बन का पाठ सिखाया । मै जानता हूँ कि जीवन भर के लौकिक ज्ञान की अपेक्षा आपके द्वारा प्रदत्त अल्पकालीन धार्मिक प्रायोगिक शिक्षा हमारे जीवन में रूपान्तरण कारी सिद्ध हुई। __ आप कहा करते थे कि विद्यार्थियो"पन्ना में हीरों का खान है तो हमारा विद्यालय विद्वानों की खान हैं।" बहुत सी मिट्टी पत्थर निकालने के बाद बड़े भाग्य और कठोर परिश्रम से एकाध हीरा निकलता है। ठीक उसी तरह हजारों विद्यार्थियों में से यदि एक भी विद्यार्थी जैन धर्म का उत्कृष्ट विद्वान बन गया तो मैं मानता हूँ हमारे देश के लिए जीवन्त रत्न मिला गया, और समाज का दान भी सफल हो जायेगा तथा हमारा श्रम भी । जब आप विद्यालय से प्रकट विद्वानों की प्रशंसा करते थे तो विद्यार्थी गण आपके सम्बोधन को अपना चिर स्थायी जीवन्त अरमान बना लेते थे। कभी आप "वादे वादे जायते विद्या" की चातुर्य पूर्ण सूक्ति सुनाकर तर्कणा शक्ति जाग्रत कराते तो कभी"या विद्या सा विमुक्तये"की शिक्षा देकर धर्माचरण की प्रेरणा करते रहते थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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