SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५६ महोपाध्याय समयसुन्दर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व १६.३ 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की अवधारणा से अभिभूतता लोकमंगल की साधना भारतीय नैतिक चिन्तन का मूलभूत साध्य है। आत्मवत् सर्वभूतेषु' की भावना में लोकमंगल की साधना निहित है। इसी भावना से अहिंसा की अवधारणा का विकास होता है और वह अपने विधायक रूप में करुणा और सेवा बन जाती है। व्यक्ति मात्र स्वयं हिंसा करने तक ही सीमित नहीं रहता है, अपितु वह प्राणियों के रक्षण का दायित्व उठाता है और इसलिए हिंसक प्रवृत्तियों का विरोध भी करता है। अहिंसा, करुणा एवं सेवा के ये आदर्श जैन, बौद्ध तथा वैदिक परम्पराओं में समान रूप से स्वीकृत रहे हैं। बौद्ध-दर्शन के दस शीलों में अहिंसा को प्रथम स्थान प्राप्त है। गीता में अहिंसा को भगवान् का ही भाव कहा गया है। महाभारत में अहिंसा को परमधर्म माना गया है। जैनधर्म में अहिंसा को भगवती बताया है। इस तरह समस्त भारतीय शास्त्रों में अहिंसा को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है, परन्तु यहाँ जैन-परम्परा के विषय में विशेष यह कि इसकी सम्पूर्ण आचार-विधि अहिंसा की ही धुरी पर घूमती है। जैन आचार-दर्शन का अहिंसा ही प्राण-तत्त्व है। महाकवि समयसुन्दर ने भी अहिंसा का पर्याप्त प्रसार किया तथा अनेक प्रान्तों में जीव-हिंसाएँ बन्द करवाईं। राजाओं एवं राज्य-अधिकारियों को भी अपने व्यक्तित्व से प्रभावित कर जैन-धर्म एवं अहिंसा का प्रचार और प्रसार किया। वादी हर्षनन्दन ने उल्लेख किया है कि कवि के उपदेश से प्रभावित हो, अकबर ने समग्र गुजरात प्रदेश में अमारिपटह (अभय-घोषणा) बजवाया। अकबर जैसे राजाओं से सम्पर्क स्थापित कर उनहें उपदेश देना और अपनी विचारधाराओं का उन्हें अनुयायी या समर्थक बनाना समयसुन्दर की प्रौढ़ प्रतिभा का परिचायक है। कवि ने सिन्ध राज्य में मखनूम मुहम्मद शेख काजी को अपने प्रवचन से प्रभावित कर समस्त सिन्ध-प्रदेश में गायों, पञ्चनदी के जलचर जीवों और १. गीता (१०.५-७) २. महाभारत (शान्ति पर्व, २४५.११) ३. प्रश्नव्याकरणसूत्र (२.१) ४. अमारिपटहा यैस्तु, साहिपत्रप्रमाणतः। दापयांचक्रिरे सर्व-गुर्जराधरणी-तले॥ - ऋषिमण्डल-टीका, प्रशस्ति (१०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012071
Book TitleMahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabh
PublisherJain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
Publication Year
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy