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________________ समयसुन्दर का जीवन-वृत्त कविवर गुरु के अन्तः और बाह्य - दोनों पक्षों की ललितता पर भाव-विभोर है - ललित वयण गुरु ललित नयण गुरु, ललित रयण गुरु ललित मती री। ललित करण गुरु ललित वयण गुरु, ललित चरण गुरु ललित गती री। ललित पूरित गुरु ललित सूरति गुरु, ललित मूरति गुरु ललित जती री। ललितवयराग गुरु ललित सोभाग गुरु, ललित पराग गुरु ललित व्रती री॥ समयसुन्दर अपने ज्ञानदाताओं के प्रति भी नतमस्तक थे - हूँ बलिहारी जाऊं तेहनी, जे गुरु गुरणी गुणवंत। जिन मुझ ज्ञान-लोचन दिया, ए उपगार महंत॥२ इसी तरह साधु, साध्वी-सती, माता-पिता, देवी, ज्ञान आदि के प्रति भी कवि की श्रद्धापूर्ण भक्ति थी। देवियों में उनकी मुख्यतः विद्या-देवी सरस्वती के प्रति भक्ति थी। अधिक विस्तार में न जाते हुए यहाँ केवल एक ही उदाहरण प्रस्तुत किया जा रहा है, जिसमें उक्त सभी के प्रति भक्ति-भाव व्यक्त किया गया है - सिद्धारथ ससि कुलतिलो, महावीर भगवंत। वर्तमान तीर्थ धणी, प्रणमो श्री अरिहंत ॥ तस गणधर गौतम नमो, लब्धि तणा भंडार। कामधेनु सुरतरुमणी, चारू नाम विचार। वीणा पुस्तक धारणी, समरुं सरसुत माय। मुरख नै पंडित करै, कालिदास कहिवाय॥ प्रणमो गुरु माता पिता, ज्ञान दृष्टि दातार। कीडी थी कुंजर करे, ए मोटो उपगार ॥ इस तरह हम देखते हैं कि कवि का व्यक्तित्व भक्ति से सराबोर था। ज्ञान के साथ भक्ति-श्रद्धा होना उनके शालीन व्यक्तित्व का परिचायक है। ज्ञानसहित भक्ति होने के कारण वह अन्ध-भक्ति नहीं थी। इसलिए वे व्यवहार-जगत् में जनप्रिय बने और अन्तरजगत् में उनकी आत्मा दिव्य तेज से आलोकित हुई। इस प्रकार ज्ञान और विद्वत्ता जहाँ उनके बाह्य व्यक्तित्व को उजागर करती है, वहीं भक्ति उनके आन्तरिक व्यक्तित्व को। १. समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि, पृष्ठ ४००-४०१ २. वही, परप्रशंसा गीतम्, पृष्ठ ४७४ ३. चार प्रत्येक बुद्ध-चौपाई, खण्ड १, ढाल १ से पूर्व दूहा १-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012071
Book TitleMahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabh
PublisherJain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
Publication Year
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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