SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 30
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समयसुन्दर का जीवन-वृत्त प्रतिपादन करके शिष्य को प्रव्रज्या देते हैं, वे आचार्य दीक्षागुरु हैं । ___ साधना के क्षेत्र में पथ-प्रदर्शन नितान्त आवश्यक है। जैन-विचारणा के अनुसार गुरु ही साधना के क्षेत्र में दिशा-निर्देशक का कार्य करता है। गुरु कौन हो सकता है - इसके लिए कहा गया है कि जो पांच इन्द्रियों का संयम करने वाला; नववाड़ों से ब्रह्मचर्य के रक्षण में सदैव जाग्रत; क्रोध, मान, माया और लोभ - इन चार कषायों से मुक्त; अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह – इन पांच महाव्रतों से युक्त; पाँच प्रकार के आचार का पालन करने वाला; गमन, भाषण, याचना, निक्षेपण और विसर्जन - इन पाँच समितियों का विवेकपूर्ण ढंग से सम्पादित करने वाला तथा मन, वचन और काया से जो संयत होता है, वही गुरु है।२।। कविवर को आचार्य जिनचन्द्रसूरि ने दीक्षा-मन्त्र प्रदान किया था और उन्हें गणि सकलचन्द्र का शिष्य घोषित किया था। इस प्रकार कवि के दीक्षा-गुरु जिनचन्द्र-सूरि और गरु गणि सकलचन्द्र हैं। कवि की दीक्षा के कुछ समय पश्चात् ही गणिसकलचन्द्र का स्वर्गवास हो गया। अतः कवि का विद्या-अध्ययन जिनचन्द्रसूरि के शिष्य महिमराज और समयराज के सान्निध्य में हुआ। स्वयं कवि ने अपनी भाव-शतक, अष्टलक्षी आदि कृतियों में इन्हें शिक्षा-गुरु के रूप में स्वीकार किया है। कवि ने स्वयं अपनी अष्टलक्षी एवं खरतरगच्छ-पट्टावली नामक कृतियों में अपनी गुरु-वंश-परम्परा का भी विस्तारपूर्वक उल्लेख किया है। कवि ने अपनी गुरुवंश-परम्परा का मूल परमगुरु भगवान् महावीर और गणधर गौतम को बताया है। उन्हीं की परम्परा में हुए हरिभद्रसूरि का आदरपूर्वक उल्लेख किया है और इस प्रकार यह स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि वे जैनधर्म की श्वेताम्बरपरम्परा से सम्बन्धित हैं। इसी वंश-परम्परा को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने नेमिचन्द्रसूरि, उद्योतनसूरि का भी सादर स्मरण किया है। ये उद्योतनसूरि ही कवि की खरतरगच्छ-शाखा के प्रथमपुरुष जिनेश्वरसूरि के प्रगुरु थे। जिनेश्वरसूरि से लेकर आगे के सभी खरतरगच्छपरम्परा के आचार्यों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है - १०.१ वर्द्धमानसूरि - आपका समय वि. सं. १०२० से १०८८ तक माना जाता है। आपका नामोल्लेखपूर्वक सर्वाधिक प्राचीन प्रतिमा-अभिलेख कटिग्राम में संवत् १०४९ का पाया जाता है। आपने संचेती, लोढ़ा, पीपाड़ा आदि गोत्रों की स्थापना की। पाटण का नरेश १. द्रव्य - जैनेन्द्र-सिद्धान्त-कोश, भाग-2 २. जैन, बौद्ध और गीता के आचार-दर्शनों को तुलनात्मक अध्ययन, भाग २, पृष्ठ २६७ ३. खरतरगच्छ-पट्टावली, पत्र १-२ (स्व. पूरणचन्द्र नाहर-संग्रहालय, कोलकाता में उपलब्ध प्रति के आधार पर पत्र-संख्या है।) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012071
Book TitleMahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabh
PublisherJain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
Publication Year
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy