SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 29
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४ महोपाध्याय समयसुन्दर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व हीरविजयसूरि का समयसुन्दर नामक कोई शिष्य था, ऐसा कोई भी उल्लेख नहीं मिलता है। दूसरे कवि ने स्वयं अपनी रचनाओं में अनेक स्थलों पर अपने को खरतरगच्छीय जिनचन्द्रसूरि का प्रशिष्य एवं गणि सकलचन्द्र का शिष्य बताया है। अतः सम्प्रदाय या गच्छ के व्यामोहवश अन्य किसी प्रकार की कल्पना करना समीचीन नहीं होगा। कवि समयसुन्दर ने 'जुग-प्रधान भये बड़भागी' स्तवन में तपागच्द के आचार्य हीरविजयसूरि को महाप्रभावक आचार्य बताकर उनकी प्रशंसा की है, किन्तु इससे उनमें गुरु-शिष्य का सम्बन्ध सिद्ध नहीं होता है। यह तो सम्प्रदायातीतता तथा गुणग्राहकता का ही परिचायक है। मात्र यही नहीं, उन्होंने पुञ्जा-ऋषि का, जो उनसे छोटे भी थे, गुणानुवाद कर उन पर भी स्वतन्त्र रचना लिखी है। किसी का गुणानुवाद करना और उसका शिष्य बनना – यह दो अलग बातें हैं। अत: मात्र गुणानुवाद के आधार पर यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि वे हीरविजयसूरि के शिष्य थे। समयसुन्दर ने अपनी अन्तिम रचनाओं में भी अपने को सकलचन्द्रगणि का ही शिष्य बताया है। अतः यह सम्भावना पूर्णतया निरस्त हो जाती है कि वे हीरविजयसूरि के शिष्य थे। जहाँ तक कवि की दीक्षा ग्रहण करने की तिथि का प्रश्न है, वादी हर्षनन्दन ने कवि के तरुणवय में प्रव्रज्या ग्रहण करने का उल्लेख किया है। अभी तक के अनुसंधान से यह संकेत प्राप्त नहीं हो पाया है कि कवि ने किस तिथि को प्रव्रज्या धारण की थी। 'जन्मतिथि' सम्बन्धी विवेचन में हमने देखा है कि कवि ने सम्भवतः संवत् १६२८ से ३० के मध्य दीक्षा ली होगी। कवि का 'समयसन्दर' नाम दीक्षित-दशा का होना चाहिये। यह नाम उन्हें दीक्षा के समय ही मिला होगा, क्योंकि जैनधर्म में प्रव्रज्या ग्रहण करने के उपरान्त साधू-साध्वियों के सांसारिक नाम, गोत्र, वंश-परम्परा आदि परिवर्तित हो जाते हैं। सांसारिक वृत्तियों से निवृत्त हो जाने के कारण सन्त अपने सांसारिक नाम, गोत्र, जन्मस्थान, जन्मतिथि आदि का निर्देश देने के प्रति उपेक्षित ही रहते हैं। इसलिए वे वंश-परम्परा आदि की सूचना न देकर गुरु-परम्परादि की सूचना देते हैं। १०. गुरु-परम्परा 'गुरु' शब्द का अर्थ महान् होता है। लोक में अध्यापकों को गुरु कहते हैं। मातापिता भी गुरु कहलाते हैं। उपकारीजनों को भी कदाचित् गुरु माना जाता है, किन्तु जैन परम्परा में आचार्य, उपाध्याय एवं साधु गुरु कहलाते हैं, क्योंकि वे अपनी आदर्श जीवनचर्या के द्वारा एवं अपने उपदेश के द्वारा जन-जन को कल्याण का सच्चा मार्ग दिग्दर्शित करते हैं, जिस पर चलकर व्यक्ति सदा के लिए कृतकृत्य हो जाता है। दीक्षा-गुरु, शिक्षागुरु, परमगुरु आदि के भेद से गुरु कई प्रकार के होते हैं। अर्हन्त भगवान् परमगुरु हैं। दीक्षा-ग्रहण करते समय गुरु की प्रधानता होती है, क्योंकि वही दीक्षा प्रदान करता है। दीक्षा-गुरु ज्ञानी तथा समत्वयोगी होना चाहिए। जो निर्विकल्प सामायिक चारित्र का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012071
Book TitleMahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabh
PublisherJain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
Publication Year
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy