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समयसुन्दर की भाषा
२७७ भी अनेक पद्य हैं, जो विशुद्ध गुजराती भाषा में लगते हैं और ऐसे भी अनेक पद्य हैं, जो विशुद्ध राजस्थानी के लगते हैं। समयसुन्दर की गद्य-हिन्दी पूर्णतः बोलचाल की लगती है। गद्य में उन्होंने कुल दो ग्रन्थ लिखे हैं, जिन्हें ग्रन्थकार ने बालावबोध की संज्ञा दी है। उन ग्रन्थों का वर्ण्य-विषय श्रावक के नित्य कर्म से संबंधित है। अतः अपने श्रावकों को सरलता से समझाने के लिए उन्होंने वही भाषा अपनाई है, जिसे अनेक पाठक नित्य व्यवहार में लाते थे। इन ग्रन्थों की भाषा गुजराती की अपेक्षा राजस्थानी अधिक लगती है, किन्तु गुजराती से अप्रभावित नहीं है। यदि यह कहें कि समयसुन्दर की भाषा राजस्थानी
और गुजराती का मिश्रित रूप है अथवा उनकी राजस्थानी या गुजराती एक दूसरे से पूर्णतः प्रभावित है या उनकी भाषा गुजराती और राजस्थानी से काफी साम्यता रखती है, तो अधिक उचित होगा।
समयसुन्दर की पद्य-भाषा में संस्कृत-शब्दावली का बाहुल्य होने से वह आधुनिक हिन्दी से बहुत ही साम्यता रखती है। उनकी भाषा शौरसेनी प्राकृत अपभ्रंश से विकसित है, लेकिन उस पर महाराष्ट्री प्राकृत अपभ्रंश का भी अधिक प्रभाव दिखाई देता है। वास्तव में समयसुन्दर एक घुमक्कड़ संत थे। उन्होंने राजस्थान, गुजरात, सौराष्ट्र, सिन्ध आदि विविध प्रान्तों में पद-यात्राएँ की थीं। अत: इन सब प्रान्तों की भाषा का उनकी मौलिक भाषा पर प्रभाव पड़ा। दूसरे में वे एक विद्वान् व्यक्ति थे और उन्हें संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, राजस्थानी, गुजराती, सिन्धी आदि भाषाओं का ज्ञान था। संभवत: वे उर्दू भाषा भी जानते थे। कारण, उन्होंने ऐसे अनेक संकेत दिये हैं, जिनसे स्पष्ट होता है कि उनका मुसलमान शासकों से घनिष्ठ संबंध था। इस तरह समयसुन्दर की हिन्दी भाषा में विभिन्न व्याकरण-संबंधी प्रवृत्तियों के बीज मिलते हैं। विदेशी भाषा की शब्दावली भी प्रयुक्त हुई है। देश्य-शब्दों का प्रयोग भी प्राप्त होता है। नीचे कुछ उदाहरण दिए जाते हैं
उर्दू
इल्ला, बिल्ला', जोरू', हजूरी अरबी
काजी, मुल्ला, फकीर', खलक्कप, हुकम्म, फोज" १. समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि, श्री परमेश्वर-भेद गीतम् (७) २. वही, ऋषि महत्त्वगीतम् (१) ३. वही, परमेश्वर-भेद गीतम् (१५) ४. वही, पद्मावती-आराधना (१३) ५. वही, ऋषि महत्त्व गीतम् (१) ६. वही, ऋषि महत्त्व गीतम् (२) ७. वही, ऋषि महत्त्व गीतम् (१) ८. सीताराम-चौपाई (६.४.१०)
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